भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कुंडलिया / मिलन मलरिहा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 33: पंक्ति 33:
 
कहत मलरिहा रोज, खार जा कुदरी धरके,
 
कहत मलरिहा रोज, खार जा कुदरी धरके,
 
बनफुटु बड़ घपटाय, अब्बड़ मिठाथे चुरके।
 
बनफुटु बड़ घपटाय, अब्बड़ मिठाथे चुरके।
 +
 +
:::::(4)
 +
 +
रिचपिच रिचपिच बाजथे, गेड़ी ह सब गाँव,
 +
लइका चिखला मा कुदे, नई सनावय पाँव ।
 +
नई सनावय पाँव, गेड़ी ह अलगाय रथे,
 +
मिलजुल के फदकाय, चाहे कतको सब मथे।
 +
मलरिहा ल कुड़काय, तोर ह बाजथे खिचरिच,
 +
माटी-तेल ओन्ग, फेर बाजही ग रिचपिच।
 +
 +
:::::(5)
 +
 +
जीत खेलत सब नरियर, बेला-बेला फेक,
 +
दारु-जुँवा चढ़े हवय, कोनो नइहे नेक।
 +
कोनो नइहे नेक , हरेली गदर मचावत,
 +
करके नसा ह खेल, घरोघर टांडव लावत।
 +
मलरिहा ह डेराय, देखके दरूहा रीत,
 +
नसा म डुबे समाज, कईसे मिलही ग जीत।
 
</poem>
 
</poem>

17:10, 23 जनवरी 2017 का अवतरण

(1)

धरके रपली जाँहुजी, खेत मटासी खार,
भरगे पानी खेत मा, बगरे नार बियार।
बगरे नार बियार, लकड़ी झिटका टारहू,
अघुवगे सब किसान, खातु लऊहा डारहू।
मिलन मन ललचाय, चेमढाई भाजी टोरके,
बने मिले हे आज, कोड़िहव रपली धरके।

(2)

पैरा के कोठार मा, फुटू पाएन आज,
छाता ताने कम रहिस, डोहड़ु डोहड़ु साज।
डोहड़ु डोहड़ु साज, सुग्घर चकचक चमकथे,
जेदिन चुरथे साग, पारा परोस ललचथे।
देखे आथे रोज, झांकत कोलहू भैरा,
फुटू साग के आस, उझेले खरही पैरा।

(3)

चुरके चिटिकन माड़थे, काला देबो साग,
पाइ जाबे रे तहु फुटु, भिन्सरहे तो जाग।
भिन्सरहे तो जाग, घपटे फुटु सुवर्ग सही,
लगे पैरा म आग, सावन के परेम इही।
कहत मलरिहा रोज, खार जा कुदरी धरके,
बनफुटु बड़ घपटाय, अब्बड़ मिठाथे चुरके।

(4)

रिचपिच रिचपिच बाजथे, गेड़ी ह सब गाँव,
लइका चिखला मा कुदे, नई सनावय पाँव ।
नई सनावय पाँव, गेड़ी ह अलगाय रथे,
मिलजुल के फदकाय, चाहे कतको सब मथे।
मलरिहा ल कुड़काय, तोर ह बाजथे खिचरिच,
माटी-तेल ओन्ग, फेर बाजही ग रिचपिच।

(5)

जीत खेलत सब नरियर, बेला-बेला फेक,
दारु-जुँवा चढ़े हवय, कोनो नइहे नेक।
कोनो नइहे नेक , हरेली गदर मचावत,
करके नसा ह खेल, घरोघर टांडव लावत।
मलरिहा ह डेराय, देखके दरूहा रीत,
नसा म डुबे समाज, कईसे मिलही ग जीत।