भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मँय हलधरिया सोन उगाथवँ / अरुण कुमार निगम" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण कुमार निगम |संग्रह= }} {{KKCatChhattisgarhiR...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
(कोई अंतर नहीं)

23:34, 23 जनवरी 2017 का अवतरण

महूँ पूत हौं भारत माँ के, अंग-अंग मा भरे उछाँह
छाती का नापत हौ साहिब, मोर कहाँ तुम पाहू थाह।

देख गवइहाँ झन हीनौ तुम, अन्तस मा बइठे महकाल
एक नजर देखौं तो तुरते, जर जाथय बइरी के खाल ।

सागर-ला छिन-मा पी जावौं, छर्री-दर्री करौं पहार
पट-पट ले दुस्मन मर जावैं, मन-माँ लावौं कहूँ बिचार।

भगत सिंग के बाना दे दौ, अंग-भुजा फरकत हे मोर
डब-डब डबकै लहू लालबम, अँगरा हे आँखी के कोर।

मँय हलधरिया सोन उगाथौं, बखत परे धरथौं बन्दूक।
उड़त चिरैया मार गिराथौं, मोर निसाना बड़े अचूक।

बजुर बरोबर हाड़ा-गोड़ा, बीर दधीची के अवतार
मँय अर्जुन के राजा बेटा, धनुस -बान हे मोर सिंगार।

चितवा कस चुस्ती जाँगर-मा, बघुआ कस मोरो हुंकार
गरुड़ सहीं मँय गजब जुझारू, नाग बरोबर हे फुफकार।

अड़हा अलकरहा दिखथौं मँय, हाँसौ झन तुम दाँत निपोर
भारत-माता के पूतन ला, झन समझौ साहिब कमजोर।