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− | गायें नहीं जानती कि
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− | उनके लिए वेदों में क्या लिखा है
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− | कि कितना पुराना है वह पुराण
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− | जिसमें उनकी महिमा का बखान है
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− | यह वेदपाठी पौराणिक ब्राह्मण जानते होंगे
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− | मालूम होगा यह भेद प्राच्य-प्रकांड मैक्समूलर को
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− | इसे जानने का दावा
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− | आंबेडकर ने भी किया था : संदर्भ सहित !
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− | गायें नहीं जानती
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− | कि उनकी रक्षा व पालन के नाम पर
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− | कितनी गौहंता समितियाँ व संस्थाएँ
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− | सरकारी रजिस्टरों में दर्ज़ हैं
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− | और कितनी लफंगों, दबंगों,
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− | मुनाफाखोरों, अफसरों,
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− | नेताओं के निजी रजिस्टरों में !
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− | कि कितने हिन्दू उनके वैध वधिक हैं
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− | और कितने ‘विधर्मियों’ के छुरों पर लगे लहू को
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− | सरकारी जिह्वाएँ चाटती हैं !!
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− | गायें नहीं पढ़ सकती भारत का संविधान
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− | उन्हें नहीं पता कि इसकी
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− | किसी अनुसूची में
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− | किसी अनुच्छेद में
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− | उनकी चिंता में भी कुछ लिखा गया है
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− | यह आंबेडकर को पता था
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− | जो गायों को पहचानते थे
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− | इस तरह कि
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− | वे मूक निरीह
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− | ब्राह्मणों और शूद्रों में भेद करना नहीं जानती
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− | वे जानते थे कि
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− | पतित ब्राह्मणों के अहंकार के बूते
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− | क्या ही बचाया जा सका है बेहतर
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− | कि उनके पाखंड बचा पाएँगे गायों को !
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− | उन्हें भरोसा था संविधान पर
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− | और लोकतंत्र के
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− | उत्तरोत्तर विकसित होते जाने वाले विवेक पर
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− | कहाँ अंदाजा था उन्हें भी
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− | कि देश के संविधान की प्रतियों की तहें लगाकर
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− | उनके ऊपर सजाई जाएँगी सत्ता की गद्दियाँ
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− | और माननीय न्यायालयों में संविधान की
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− | वे प्रतियाँ रखवाई जाएँगी
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− | जिनकी छपाई के वक्त
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− | रोशनाई कम पड़ गयी थी !
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− | क्या आखिरी दिनों में आंबेडकर को
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− | इन्हीं बातों का तीव्र आभास होने लगा था ?
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− | कहते हैं उन दिनों
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− | उन्हें बुद्ध बेतरह ध्यान आते थे
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− | मरने से पहले बौद्ध
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− | और मरते हुए वे बुद्ध हो गये थे !!
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− | यह महज संयोग नहीं था कि
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− | समता और न्याय के लिए
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− | उम्र भर लड़ने वाला आदमी
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− | करुणा और संवेदना का सूत्र भी
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− | हस्तांतरित कर गया था
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− | (न जाने किन हाथों में !)
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− | इतिहास बार बार दोहराता है कि
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− | करुणा पर अपार विश्वास था
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− | गाँधी का भी
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− | जिन्हें गायों की ही नहीं
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− | वधिकों की भी बराबर की फिक्र थी
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− | जिन्हें विश्वास था कि बची रही मनुष्यता
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− | तभी बचाया और हासिल किया जा सकेगा
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− | कुछ भी शुभ
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− | घोर आस्था थी उनकी उस कथा पर
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− | जिसमें तथागत के महज़ कुछ सवालों से
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− | काँप-काँप कर ढहने लगी थी
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− | अंगुलीमाल की नृशंस मनोरचना !
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− | कोई तूफान कोई भूकंप नहीं था
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− | सिद्ध करुणा थी यह सिद्धार्थ की !
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− | इतिहास की किताबों में शायद ही मिले
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− | लेकिन इसी करुणा से आबद्ध प्राण तजते रहे
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− | कलयुगी चरम पर भी
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− | कई सज्जन साधु सन्यासी !
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− | गायों ने तब भी करुणा का स्पर्श बहुत ही कम पाया
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− | फिर भी बिचारियों ने सिर्फ सहना सीखा
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− | कभी क्रोध नहीं दिखाया
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− | छोड़कर अपवाद
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− | बछड़ों के असुरक्षाबोध के क्षणों का!
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− | गायों को क्या पता
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− | कि वे सैकड़ों करोड़ों मनु संतानों की माएँ हैं
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− | वे इतना ज़रूर जानती होंगी
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− | कि जिनकी वे माएँ हैं
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− | उनके हिस्से का दूध भी
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− | उनसे छीन लिया जाता है !
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− | गायों को नहीं पता कि
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− | किसी अखलाक की हत्या का जिम्मेवार
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− | उन्हें ठहराया जा चुका है
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− | उन्हीं को बचाने के बहाने
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− | उन्हीं की आड़ में
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− | उन्हीं की खाल ओढ़कर
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− | भय का दिग्विजय अभियान चलाया जा रहा है
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− | सरेआम हत्यायें की जा रही हैं
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− | और इस माहौल में
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− | हत्यारों, हत्यारी सत्ता और व्यवस्था से नहीं
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− | बल्कि उनसे तेज़ाबी घृणा
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− | करने वालों की तादाद
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− | बहुत बढ़ती जा रही है
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− | कि वे बुद्धिजीवियों के प्रतिरोध
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− | की अनिवार्य खुराक हो गयी हैं !
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− | गायों को कैसे होगा याद कि कब
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− | मनुष्यों ने अपनी युक्तियों से
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− | उन्हें पालतू बना लिया था
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− | (यह तथ्य तो बच्चों ही नहीं वयस्कों के
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− | निबंधों से भी ग़ायब रहता है !)
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− | गायें पहचानती हैं, तो उन खूँटों को जिनसे
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− | वे सदियों से बंधी हुई हैं
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− | इस चिर गुलामी से विद्रोह की तो
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− | वे सोचती भी नहीं होंगी
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− | वे अधिक से अधिक अच्छे व्यवहार का सोचती होंगी
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− | स्वच्छ जल
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− | हरे चारागाह का सोचती होंगी
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− | थोड़े खुले माहौल का सोचती होंगी
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− | हिन्दू-मुसलमानों के झगड़ों का उन्हें क्या पता
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− | किन्तु सहज ही हमारी तरह वे भी
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− | अपने जीने के अधिकार का सोचती होंगी !
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− | लेकिन, गायों को क्या पता....!!
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