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कवि: [[{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=तुलसीदास]][[Category:|संग्रह=रामचरितमानस / तुलसीदास]][[Category:कविताएँ]]}}{{KKPageNavigation|पीछे=बाल काण्ड / भाग २ / रामचरितमानस / तुलसीदास|आगे=बाल काण्ड / भाग ४ / रामचरितमानस / तुलसीदास|सारणी=रामचरितमानस / तुलसीदास}}{{KKCatAwadhiRachna}}<poem>जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा॥बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥छं0-दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥दो0-नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~बहु बिधि संभु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेम कछु जाइ न बरना॥सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥छं0-जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई॥जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥दो0-चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥
<br>चौ०-सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥<br>मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥<br>भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥<br>बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥<br>चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला॥<br>मुखछबि कहि जगत मातु पितु संभु भवानी। तेही सिंगारु जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥कहउँ बखानी॥<br>उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा॥<br>सुमन करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥बसहिं कैलासा॥<br>दो०-केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥<br>देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥२३३॥तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा॥<br>आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥<br>चौ०छं0-धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।<br>बहुरि गौरि तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥चरित संछेपहिं कहा॥<br>सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।<br>नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥<br>परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहि सभीता॥<br>पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥<br>गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥<br>धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरि अपनपउ पितुबस जाने॥<br>दो०दो0-देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।<br>निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद थोरि॥२३४॥पावहिं पारु।<br>बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥103॥<br>चौ०-जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥<br>प्रभु जब जात जानकी जानी। संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुख सनेह सोभा गुन खानी॥पावा॥<br>परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित भीतीं लिख लीन्ही॥बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥<br>गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥<br>जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस प्रेम बिबस मुख चंद चकोरी॥आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥<br>जय गज बदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥<br>नहिं अहो धन्य तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥<br>भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥<br>दो०-पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।<br>महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥२३५॥<br><br>चौ०-सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥<br>देबि पूजि सिव पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥<br>मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥<br>कीन्हेउँ प्रगट जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥सोहाहीं॥<br>बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥<br>सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥<br>सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥<br>नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥<br>छं०दो0-मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।प्रथमहिं मै कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।<br>करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥104॥<br>एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।<br>तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥<br>सो०-जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ कहि।<br>मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥२३६॥<br><br>चौ०-हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥<br>राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥<br>सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥<br>सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे॥<br>करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥<br>बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई॥<br>प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि जस सुखु पावा॥<br>बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥मोरें॥<br>दो०-जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।राम चरित अति अमित मुनिसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥<br>सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥२३७॥<br><br>चौ०-घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥<br>कोक सिकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥<br>बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे॥<br>सिय मुख छबि बिधु ब्याज तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी॥<br>करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥<br>बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥<br>उदउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता॥<br>बोले लखनु जोरि जुग पानी। सुमिरि गिरापति प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥धनुपानी॥<br>दो०-अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥<br>जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥२३८॥<br><br>चौ०-नृप सब नखत जेहि पर कृपा करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥<br>कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥<br>ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥<br>उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥<br>रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥<br>तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी॥<br>बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥<br>नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥<br>सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए॥<br>जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥<br>दो०दो0-सतानंद पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद।<br>चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥२३९॥<br><br>मासपारायण, आठवाँ विश्राम<br>नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम<br><br>चौ०-सीय स्वयंबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥<br>लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥<br>हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥<br>पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला॥<br>रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥<br>चले बसहिं तहाँ सुकृती सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥सेवहिं सिब सुखकंद॥105॥<br>देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥<br>तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहु सब काहू॥<br>दो०-कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर नारि।तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥<br>उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥२४०॥<br><br>चौ०-राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥<br>गुन सागर नागर बर बीरा। गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥सब काला॥<br>राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥<br>जिन्ह कें रही भावना जैसी। एक बार तेहि तर प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥<br>देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥<br>डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥<br>रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा॥<br>पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥<br>दो०-नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।<br>जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥२४१॥<br><br>चौ०-बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥डासि नागरिपु छाला। बैठै सहजहिं संभु कृपाला॥<br>जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥<br>सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु तरुन अरुन अंबुज सम प्रीति न जाति बखानी॥चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥<br>जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥<br>हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥<br>रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥<br>उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥<br>एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥<br>दो०-राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।<br>सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥२४२॥<br><br>चौ०-सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥<br>भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥छबि हारी॥<br>चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी॥<br>कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला॥<br>कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥<br>भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥<br>पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं॥<br>रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥<br>दो०दो0-कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।<br>बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥२४३॥<br><br>चौ०-कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे॥<br>पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥<br>देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन चलत न तारे॥<br>हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥<br>करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥<br>जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥<br>निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥<br>भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥<br>दो०-सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद नलिन बिसाल।<br>मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥२४४॥नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥106॥<br><br>चौ०-प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे॥बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥<br>असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी॥<br>बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥<br>अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥<br>बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी॥पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥<br>तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥<br>एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥<br>यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥<br>सो०-सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के॥<br>जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥२४५॥<br><br>चौ०-ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥<br>सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता॥<br>जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥<br>सुंदर सुखद चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥<br>सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥<br>करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥<br>अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥<br>देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥पद पंकज सेवा॥<br>दो०दो0-जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई।<br>चतुर सखीं सुंदर प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल सादर चलीं लवाईं॥२४६॥कला गुन धाम॥<br>जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥107॥<br>चौ०-सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥<br>उपमा सकल जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥निज दासी॥<br>सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥<br>जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥<br>गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥<br>बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥<br>जौ छबि सुधा पयोनिधि जासु भवनु सुरतरु तर होई। परम रूपमय कच्छपु सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥<br>सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू॥<br>दो०-एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।<br>तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥२४७॥<br><br>चौ०-चलीं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥<br>सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥<br>भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए॥<br>रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥<br>हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई। बरषि प्रसून अपछरा गाई॥<br>पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला॥<br>सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा॥<br>प्रभु जे मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥<br>दो०-गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि॥<br>लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥२४८॥<br><br>चौ०-परमारथबादी। कहहिं राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥कहुँ ब्रह्म अनादी॥<br>सोचहिं सेस सारदा बेद पुराना। सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥रघुपति गुन गाना॥<br>हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥<br>बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु। सीय तुम्ह पुनि राम राम कर करै बिबाहू॥दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥<br>जग भल कहहि भाव सब काहू। हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू॥रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥<br>एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥<br>तब बंदीजन जनक बोलाए। बिरिदावली कहत चलि आए॥<br>कह दो0-जौं नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।<br>दो०-बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥108॥<br>पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥२४९॥<br>जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥<br>चौ०-नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥<br>रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥<br>अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥करहू॥<br>त्रिभुवन जय समेत बैदेही॥बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥मै बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥<br>सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय तदपि मलिन मन माखे॥<br>परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन्ह सिर नाई॥<br>तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ बोधु कोटि आवा। सो फलु भली भाँति बलु करहीं॥हम पावा॥<br>जिन्ह के अजहूँ कछु बिचारु संसउ मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥<br>दो०-तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥<br>मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥२५०॥तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥<br>कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥<br>चौ०दो0-भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।<br>डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥109॥<br>सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी॥<br>कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥<br>श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥<br>नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन रोष जनु साने॥तुम्हारी॥<br>दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना॥गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥<br>देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥<br>दो०-कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय।<br>पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥२५१॥<br><br>चौ०-आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा॥<br>रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई॥<br>अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥<br>तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥<br>सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ॥<br>जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥दाया॥<br>जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी॥प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥<br>माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥<br>दो०-कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।<br>नाइ पुनि प्रभु कहहु राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥२५२॥अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥<br>कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥<br>चौ०-रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥<br>कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी॥<br>सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥<br>जौं तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥<br>काचे घट बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥रावन मारा॥<br>तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना॥राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखलीला॥<br>नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ॥दो0-बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।<br>कमल नाल जिमि चाप चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं॥प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥110॥<br>दो०-तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।<br>जौं न करौं पुनि प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥२५३॥कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥<br><br>चौ०-लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥<br>सकल लोक भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥बरनहु सहित बिभागा॥<br>गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥<br>सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥<br>बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति सनेहमय बानी॥बिमल बिबेका॥<br>उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥<br>सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥<br>ठाढ़े भए उठि प्रस्न उमा कै सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥<br>दो०-उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।<br>बिकसे संत सरोज हर हियँ रामचरित सब हरषे आए। प्रेम पुलक लोचन भृंग॥२५४॥जल छाए॥<br>श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥<br>चौ०दो0-नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।<br>मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥111॥<br>भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥<br>गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा॥झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥<br>सहजहिं चले सकल जेहि जानें जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥<br>चलत राम बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥<br>बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥<br>तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ राम गनेस गोसाईं॥<br>दो०-करि प्रनाम रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥<br>सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥२५५॥<br><br>चौ०-सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेउ कहावत हितू हमारे॥<br>धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥उपकारी॥<br>रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल भूप करि दापा॥लोक जग पावनि गंगा॥<br>सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं॥तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी॥<br>भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति दो0-रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु जाति न जानी॥नाहिं॥112॥<br>बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी॥<br>कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥<br>रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥<br>दो०-मंत्र परम लघु जासु बस बिधि जिन्ह हरि हर सुर सर्ब।कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥<br>महामत्त गजराज कहुँ बस नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर अंकुस खर्ब॥२५६॥लेखा॥<br>ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥<br>चौ०-काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे॥जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥<br>देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुष जो नहिं करइ राम सुनु रानी॥गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥<br>सखी बचन कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती॥हरिचरित न जो हरषाती॥<br>तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥<br>मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी॥<br>करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई॥<br>गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा॥<br>बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥<br>दो०-देखि देखि रघुबीर तन गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर मनाव धरि धीर॥हित दनुज बिमोहनसीला॥<br>भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥२५७॥<br><br>चौ०दो0-नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।<br>अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु सतसमाज सुरलोक सब को हानी॥सुनै अस जानि॥113॥<br>सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई॥<br>कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा॥रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥<br>बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा॥रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥<br>सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥<br>निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥<br>तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति परिताप सीय मन माहीं। लव निमेष जुग सय सम जाहीं॥तोरी॥<br>दो०-प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥<br>खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल॥२५८॥एक बात नहि मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥<br>तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥<br>चौ०दो0-गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ लाज निसा अवलोकी॥साच॥114॥<br>लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना॥<br>सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी॥<br>तन अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥लागी॥<br>तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥<br>जेहि कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥सूझ लाभु नहिं हानी॥<br>प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम सबु जाना॥रूप देखहिं किमि दीना॥<br>सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें॥जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥<br>दो०-लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥<br>पुलकि गात बोले बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन चरन चापि ब्रह्मांडु॥२५९॥बिचारे॥<br><br>चौ०-दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥<br>रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥<br>चाप सपीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥<br>सब जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन् कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू॥कहा करिअ नहिं काना॥<br>भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥<br>सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥<br>संभुचाप बड़ बोहितु पाई। चढ़े जाइ सब संगु बनाई॥<br>राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहि कोउ कड़हारू॥<br>दो०सो0-राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।<br>चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि॥२६०॥<br><br>चौ०-देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही॥<br>तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा॥<br>का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें॥<br>अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी॥<br>गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥<br>दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ॥<br>लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें॥<br>तेहि छन निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥पद।<br>छं०-भरे भुवन घोर कठोर रव सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि बाजि तजि मारगु चले।<br>चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले॥<br>सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।<br>कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं॥मम॥115॥<br>सो०-संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु।<br>बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस॥२६१॥सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥<br><br>चौ०-प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे॥<br>कौसिकरुप पयोनिधि पावन। अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बारि अवगाहु सुहावन॥बस सगुन सो होई॥<br>रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी॥जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥<br>बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना॥जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥<br>ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा॥<br>बरिसहिं सुमन रंग बहु माला। गावहिं किंनर गीत रसाला॥<br>रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभंग धुनि जात न जानी॥<br>मुदित कहहिं जहँ राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ नर नारी। भंजेउ राम संभुधनु भारी॥मोह निसा लवलेसा॥<br>दो०-बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।<br>करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥२६२॥<br><br>चौ०-झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई॥<br>बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए॥पुनि बिग्यान बिहाना॥<br>सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥<br>जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई॥<br>श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥<br>सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥<br>रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥<br>सतानंद तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥<br>दो०दो0-संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार।पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ॥<br>गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार॥२६३॥रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥116॥<br>–*–*–<br>सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥<br>कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी॥<br>तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू॥<br>जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी॥<br>चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥<br>सुनत चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥ससि तेहि के भाएँ॥<br>सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥<br>गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल उमा राम उर मेली॥बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥<br>सो०-रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।<br>सकुचे बिषय करन सुर जीव समेता। सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥२६४॥एक तें एक सचेता॥<br>पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥<br>सुर किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा॥<br>नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं॥<br>जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरदावलि उच्चरहीं॥<br>महि पाताल नाक जसु ब्यापा। कर परम प्रकासक जोई। राम बरी सिय भंजेउ चापा॥अनादि अवधपति सोई॥<br>करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥<br>सोहति सीय राम कै जौरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी॥जासु सत्यता तें जड माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥<br>सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता॥<br>दो०दो0-गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि।<br>मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥२६५॥जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥117॥<br>–*–*–<br>तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे॥एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥<br>उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥<br>लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥<br>तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥<br>जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥<br>साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी॥<br>बलु प्रतापु बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई॥<br>जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई॥कृपाल रघुराई॥<br>दो०-देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥<br>लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥२६६॥<br>–*–*–<br>बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥<br>जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही॥<br>लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई॥<br>हरि बिनु पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥<br>कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥<br>रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥<br>रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥<br>भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं॥<br>दो०-अरुन तनु बिनु परस नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥<br>मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप॥२६७॥<br>–*–*–<br>खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। असि सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥<br>तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयसु भृगुकुल कमल पतंगा॥<br>देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥<br>गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा॥<br>सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा॥<br>भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥<br>बृषभ कंध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥<br>कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥<br>दो०दो0-सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप।<br>धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥२६८॥<br>–*–*–<br>देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥<br>पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा॥<br>जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी॥इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान॥<br>जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥<br>आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गई सयानीं॥<br>बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई॥<br>रामु लखनु सोइ दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा॥सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥118॥<br>रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन॥<br>दो०-बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर॥कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥<br>पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर॥२६९॥<br>–*–*–<br>समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब आए॥उर अंतरजामी॥<br>सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे॥बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥<br>अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा॥<br>बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥<br>अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥<br>सुर मुनि नाग नगर सादर सुमिरन जे नर नारी॥सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥<br>मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥<br>भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता॥<br>दो०-सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।<br>हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु॥२७०॥<br>मासपारायण, नवाँ विश्राम<br>–*–*–<br>नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥<br>आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥<br>सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥<br>सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥<br>सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥<br>सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥<br>बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥<br>एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥<br>दो०-रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार॥<br>धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥२७१॥<br>–*–*–<br>लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब धनुष समाना॥कुतरक कै रचना॥<br>का छति लाभु जून धनु तौरें। देखा राम नयन के भोरें॥भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥<br>छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।<br>बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥<br>बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥<br>बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥<br>भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥<br>सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥<br>दो०दो0-मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।<br>गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥२७२॥<br>–*–*–<br>बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥<br>पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।<br>इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥119॥<br>देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥<br>भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी॥<br>सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥<br>बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें॥<br>कोटि कुलिस ससि कर सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥<br>दो०-जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।<br>सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर॥२७३॥तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥<br>–*–*–<br>कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु॥<br>भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू॥<br>काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥<br>तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥<br>लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥<br>अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥<br>नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥<br>बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥<br>दो०-सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।<br>बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥२७४॥<br>–*–*–<br>तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि लागि बोलावा॥परेऊ॥<br>सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥<br>अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥<br>बाल बिलोकि बहुत प्रथम जो मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा॥पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥<br>कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥<br>खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही॥<br>उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें॥<br>न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥<br>दो०-गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।<br>अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥२७५॥<br>–*–*–<br>कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥<br>माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें॥<br>सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा॥<br>अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥<br>सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब सभा पुकारा॥उर पुर बासी॥<br>भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही॥<br>मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े॥<br>अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥<br>दो०-लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।<br>बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥२७६॥<br>–*–*–<br>नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥<br>जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना॥<br>जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं॥<br>करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥<br>राम उमा बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसकाने॥परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥<br>हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी॥<br>गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीं॥<br>दो0-हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मौहीं॥सुजान<br>दो०-लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।<br>जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥२७७॥<br>–*–*–<br>मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥<br>टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥<br>जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई॥<br>बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥<br>थर थर कापहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी॥<br>भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होइ बल हानी॥<br>बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा॥कृपानिधान॥120(क)॥<br>मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसैं॥<br>दो०सो0- सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।<br>गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम॥२७८॥कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड॥120(ख)॥<br>–*–*–<br>अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥<br>सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥<br>बररै बालक एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ॥<br>तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी में नाथ तुम्हारा॥<br>कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई॥<br>कहिअ बेगि सो संबाद उदार जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥<br>कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें॥<br>एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा॥<br>दो०-गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।<br>परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर॥२७९॥<br>–*–*–<br>बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती॥आगें कहब।<br>भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ॥<br>आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा॥<br>बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला॥<br>जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता॥<br>देखु जनक हठि बालक एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू॥<br>बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृप ढोटा॥<br>बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं॥<br>दो०-परसुरामु तब सुनहु राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।अवतार चरित परम सुंदर अनघ॥120(ग)॥<br>संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥२८०॥हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।<br>–*–*–मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥120(घ॥<br>बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥<br>करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा॥नवान्हपारायन,पहला विश्राम<br>छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही॥<br>भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ॥मासपारायण, चौथा विश्राम<br>गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू॥<br>टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू॥सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥<br>राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा॥<br>जेंहिं रिस हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानि आपन अनुगामी॥<br>दो०-प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।<br>बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु॥२८१॥<br>–*–*–<br>देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥<br>नामु जान पै तुम्हहि चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा॥सोई॥<br>जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥<br>छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी॥<br>हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा॥कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥<br>राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा॥अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥<br>देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥<br>सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥<br>दो०-बार बार तदपि संत मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥<br>बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम॥२८२॥<br>–*–*–<br>निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस बिप्र सुनावउँ तोही॥कारन मोही॥<br>चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु॥जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥<br>समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥<br>मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥<br>मोर प्रभाउ बिदित करहिं अनीति जाइ नहिं तोरें। बोलसि निदरि बरनी। सीदहिं बिप्र के भोरें॥धेनु सुर धरनी॥<br>भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा॥तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा॥<br>राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥<br>छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौं अभिमाना॥<br>दो०दो0-जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।<br>तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥२८३॥बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥121॥<br>–*–*–<br>देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥<br>जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ॥<br>छत्रिय सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना॥धरहीं॥<br>कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥<br>बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥<br>सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के॥<br>राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥<br>देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥<br>दो०-जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।<br>जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात॥२८४॥<br>–*–*–<br>जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु॥<br>जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥<br>बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥<br>सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥<br>करौं काह मुख जनम एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥<br>अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता॥<br>कहि द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥<br>अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥<br>दो०-देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।<br>हरषे पुर नर नारि अरु बिजय जान सब मिटी मोहमय सूल॥२८५॥कोऊ॥<br>–*–*–<br>अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे॥<br>जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी॥<br>सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥<br>गत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी॥कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥<br>जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥<br>मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाई॥होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥<br>कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥<br>टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहु॥<br>दो०दो0-तदपि भए निसाचर जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।तेइ महाबीर बलवान।<br>बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥२८६॥कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान॥122॥<br>–*–*–<br>दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहि बोलाई॥<br>मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥<br>बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए॥<br>हाट बाट मंदिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा॥<br>हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए॥<br>रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन चले सचु पाई॥प्रवाना॥<br>पठए बोलि गुनी एक बार तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना॥<br>बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा॥हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥<br>दो०-हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥<br>रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल॥२८७॥<br>–*–*–<br>बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे॥<br>कनक कलित अहिबेल बनाई। लखि नहि परइ सपरन सुहाई॥<br>तेहि के रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकता दाम सुहाए॥<br>मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा॥<br>एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा॥संसारा॥<br>एक कलप सुर प्रतिमा खंभन गढ़ी काढ़ी। मंगल द्रब्य लिएँ देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब ठाढ़ी॥हारे॥<br>चौंकें भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाई॥<br>दो०-सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि॥<br>हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि॥२८८॥<br>–*–*–<br>रचे रुचिर बर बंदनिबारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे॥<br>मंगल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥<br>दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ बरनि बिचित्र बिताना॥मारा॥<br>जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥<br>दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोक उजागर॥<br>जनक भवन कै सौभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी॥<br>जेहिं तेरहुति परम सती असुराधिप नारी। तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥बल ताहि न जितहिं पुरारी॥<br>जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥<br>दो०दो0-बसइ नगर जेहि लच्छ छल करि कपट नारि बर बेषु॥टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह॥<br>जब तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु॥२८९॥<br>–*–*–<br>पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥<br>भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई॥<br>जानेउ मरम तब श्राप कोप करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥दीन्ह॥123॥<br>बारि बिलोचन बाचत पाँती। पुलक गात आई भरि छाती॥<br>रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी॥तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥<br>पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची॥<br>खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई॥जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥<br>पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई॥एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा॥<br>दो०-कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥<br>सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस॥२९०॥नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥<br>–*–*–<br>गिरिजा चकित भई सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता॥बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि॥<br>प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी॥<br>तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥<br>भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे॥<br>स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक कारन कवन श्राप मुनि साथा॥दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥<br>पहिचानहु तुम्ह यह प्रसंग मोहि कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ॥<br>जा दिन तें पुरारी। मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई॥मन मोह आचरज भारी॥<br>कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने॥<br>दो०दो0-सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ कोउ।कोइ।<br>रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ॥२९१॥<br>–*–*–<br>पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे॥<br>जिन्ह के जेहि जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे॥<br>तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे॥<br>सीय स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका॥<br>संभु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा॥<br>तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी॥<br>सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू॥<br>जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ रघुपति करहिं जब सो तस तेहि सभाँ पराभउ पावा॥छन होइ॥124(क)॥<br>दो०सो0-तहाँ कहउँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल।गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।<br>भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल॥२९२॥भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥124(ख)॥<br>–*–*–<br>सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥<br>आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥देवरिषि मन अति भावा॥<br>राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें॥निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥<br>कंपहि भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें॥सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥<br>देव मुनि गति देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ॥सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह समाना॥<br>दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥सहित सहाय जाहु मम हेतू। चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥<br>सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥<br>कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुख माना॥<br>दो०-तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ।<br>कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ॥२९३॥<br>–*–*–<br>सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥<br>जिमि सरिता सागर सुनासीर मन महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥<br>तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ॥<br>तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी॥<br>सुकृती तुम्ह समान जे कामी लोलुप जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥<br>तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें॥<br>बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी॥<br>तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना॥<br>दो०दो0-चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ।<br>भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥२९४॥<br>–*–*–<br>राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥<br>सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥<br>प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बनी॥<br>मुदित असीस देहिं गुरु नारीं। अति आनंद मगन महतारीं॥<br>लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती॥<br>राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी॥<br>मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥<br>दिए दान आनंद समेता। चले बिप्रबर आसिष देता॥<br>सो०-जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।<br>चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के॥२९५॥<br>कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥<br>समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होने बधाए॥<br>भुवन चारि दस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू॥<br>सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे॥<br>जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। राम पुरी मंगलमय पावनि॥<br>तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई॥<br>ध्वज पताक पट चामर चारु। छावा परम बिचित्र बजारू॥<br>कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला॥<br>दो०-मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।<br>बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ॥२९६॥<br>–*–*–<br>जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥<br>बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरुप रति मानु बिमोचनि॥<br>गावहिं मंगल मंजुल बानीं। सुनिकल रव कलकंठि लजानीं॥<br>भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना॥<br>मंगल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना॥<br>कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं॥<br>गावहिं सुंदरि मंगल गीता। सुख हाड़ लै लै नामु रामु अरु सीता॥भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।<br>बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा॥<br>दो०-सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।<br>जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार॥२९७॥<br>–*–*–<br>भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई॥<br>चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥<br>भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥<br>रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे॥<br>सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥<br>नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने॥<br>तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा॥<br>सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी॥<br>दो०- छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।<br>जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन॥२९८॥<br>–*–*–<br>बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े॥<br>फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना॥<br>रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥<br>चवँर चारु किंकिन धुनि करही। भानु छीनि लेइ जनि जान सोभा अपहरहीं॥<br>सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते॥<br>सुंदर सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे॥<br>जे जल चलहिं थलहि की नाई। टाप जड़ तिमि सुरपतिहि बूड़ बेग अधिकाई॥लाज॥125॥<br>अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई॥<br>दो०-चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥<br>होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात॥२९९॥कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा॥<br>–*–*–चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥<br>कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं॥<br>चले मत्तगज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥<br>बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना॥<br>तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृन्दा। जनु तनु धरें रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल श्रुति छंदा॥असमसर कला प्रबीना॥<br>मागध सूत बंदि गुनगायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक॥<br>बेसर ऊँट बृषभ करहिं गान बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती॥तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा॥<br>कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥<br>चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई॥<br>दो०-सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।<br>कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनू दोउ बीर॥३००॥<br>–*–*–<br>गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा॥<br>निदरि घनहि घुर्म्मरहिं निसाना। निज पराइ काम कला कछु सुनिअ मुनिहि काना॥ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥<br>महा भीर भूपति के द्वारें। रज होइ जाइ पषान पबारें॥सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू॥<br>चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नारीं। लिँएँ आरती मंगल थारी॥दो0- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।<br>गावहिं गीत मनोहर नाना। अति आनंदु न गहेसि जाइ बखाना॥<br>मुनि चरन तब सुमंत्र दुइ स्पंदन साजी। जोते रबि हय निंदक बाजी॥कहि सुठि आरत बैन॥126॥<br>दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने। नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने॥<br>राज समाजु एक रथ साजा। दूसर तेज पुंज अति भ्राजा॥<br>दो०-तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाइ नरेसु।<br>आपु चढ़ेउ स्पंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु॥३०१॥<br>–*–*–<br>सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें। सुर गुर संग पुरंदर जैसें॥<br>करि कुल रीति बेद बिधि राऊ। देखि सबहि सब भाँति बनाऊ॥<br>सुमिरि रामु गुर आयसु पाई। चले महीपति संख बजाई॥<br>हरषे बिबुध बिलोकि बराता। बरषहिं सुमन सुमंगल दाता॥<br>भयउ कोलाहल हय गय गाजे। ब्योम बरात बाजने बाजे॥<br>सुर नर नारि सुमंगल गाई। सरस राग बाजहिं सहनाई॥<br>घंट घंटि धुनि बरनि जाहीं। सरव करहिं पाइक फहराहीं॥<br>करहिं बिदूषक कौतुक नाना। हास कुसल कल गान सुजाना ।<br>दो०-तुरग नचावहिं कुँअर बर अकनि मृदंग निसान॥<br>नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान॥३०२॥<br>–*–*–<br>बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुभदाता॥<br>चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल नारद मन कछु रोषा। कहि देई॥प्रिय बचन काम परितोषा॥<br>दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा॥नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥<br>सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सवाल आव बर नारी॥<br>लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा॥<br>मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्हि देखाई॥<br>छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी॥<br>सनमुख आयउ दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना॥<br>दो०-मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार।<br>जनु मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब साचे होन हित भए सगुन एक बार॥३०३॥बरनी॥<br>–*–*–<br>मंगल सगुन सुगम सब ताकें। सगुन ब्रह्म सुंदर सुत जाकें॥<br>राम सरिस बरु दुलहिनि सीता। समधी दसरथु जनकु पुनीता॥<br>सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे। अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे॥कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥<br>एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना॥<br>आवत जानि भानुकुल केतू। सरितन्हि जनक बँधाए सेतू॥<br>बीच बीच बर बास बनाए। सुरपुर सरिस संपदा छाए॥<br>असन सयन बर बसन सुहाए। पावहिं सब निज निज तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन भाए॥माहीं॥<br>नित नूतन सुख लखि अनुकूले। सकल बरातिन्ह मंदिर भूले॥<br>दो०-आवत मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान।महेस सिखाए॥<br>सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान॥३०४॥बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं॥<br>मासपारायण,दसवाँ विश्रामतिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ॥<br>–*–*–<br>कनक कलस भरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा॥<br>भरे सुधासम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने॥<br>फल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेंट हित भूप पठाईं॥<br>भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना॥<br>मंगल सगुन सुगंध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए॥<br>दधि चिउरा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा॥<br>अगवानन्ह जब दीखि बराता।उर आनंदु पुलक भर गाता॥<br>देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना॥<br>दो०दो0-हरषि परसपर मिलन संभु दीन्ह उपदेस हित कछुक चले बगमेल।नहिं नारदहि सोहान।<br>जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल॥३०५॥भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥127॥<br>–*–*–<br>बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं। मुदित देव दुंदुभीं बजावहिं॥<br>बस्तु सकल राखीं नृप आगें। बिनय राम कीन्ह तिन्ह अति अनुरागें॥चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥<br>प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा। भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा॥संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥<br>करि पूजा मान्यता बड़ाई। जनवासे कहुँ चले लवाई॥एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥<br>बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं। देखि धनहु धन मदु परिहरहीं॥<br>अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा। छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा॥बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥<br>जानी सियँ बरात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई॥हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥<br>हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाई। भूप पहुनई करन पठाई॥बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥<br>दो०-सिधि काम चरित नारद सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास।भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥<br>लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास॥३०६॥<br>–*–*–<br>निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती॥<br>बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना॥<br>सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी॥<br>पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनंदु अमाई॥<br>सकुचन्ह कहि प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं॥मोह अस को जग जाया॥<br>बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी। उपजा उर संतोषु बिसेषी॥दो0-रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।<br>हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अंग अंबक जल छाए॥तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥128॥<br>चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे॥<br>दो०- भूप बिलोके जबहिं सुनु मुनि आवत सुतन्ह समेत।मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके॥<br>उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत॥३०७॥ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥<br>–*–*–नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥<br>मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा॥<br>कौसिक राउ लिये करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई॥अंकुरेउ गरब तरु भारी॥<br>पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई॥बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥<br>सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे॥मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मै सोई॥<br>पुनि बसिष्ठ तब नारद हरि पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए॥नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥<br>बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं। मन भावती असीसें पाईं॥श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥<br>भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा॥<br>हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता॥<br>दो०दो0-पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत।बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।<br>मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत॥३०८॥श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥129॥<br>–*–*–<br>रामहि देखि बरात जुड़ानी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी॥<br>नृप समीप सोहहिं सुत चारी। बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु धन धरमादिक बहु मनसिज रति तनुधारी॥<br>सुतन्ह समेत दसरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी॥<br>सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना॥<br>सतानंद अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बंदीजन॥<br>सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना॥<br>प्रथम बरात लगन तें आई। तातें तेहिं पुर प्रमोदु अधिकाई॥बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥<br>ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं। बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं॥<br>दो०-रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज।<br>जहँ जहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज॥।३०९॥<br>–*–*–<br>जनक सुकृत मूरति बैदेही। दसरथ सुकृत रामु धरें देही॥<br>इन्ह सत सुरेस सम काँहु न सिव अवराधे। काहिँ न इन्ह समान फल लाधे॥बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥<br>इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं। है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं॥बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥<br>हम सोइ हरिमाया सब सकल सुकृत कै रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी॥<br>जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस बिसेषी॥<br>पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू॥<br>कहहिं परसपर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं॥<br>बड़ें भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई॥<br>दो०-बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय।<br>लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय॥३१०॥<br>–*–*–<br>बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई॥<br>तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी॥<br>सखि जस राम लखनकर जोटा। तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा॥<br>स्याम गौर सब अंग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए॥<br>कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे॥<br>भरतु रामही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी॥<br>लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अंग अनूपा॥<br>मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥<br>छं०-उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।<br>बल बिनय बिद्या सील गुन खानी। सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं॥तासु कि जाइ बखानी॥<br>पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं॥<br>ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं॥<br>सो०-कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन।<br>सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ॥३११॥<br>एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीं॥<br>जे नृप सीय करइ स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए॥<br>कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गए सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥<br>गए बीति कुछ दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती॥<br>मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा॥<br>ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू॥<br>पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई॥<br>सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता॥<br>दो०-धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल।<br>बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकुल॥३१२॥<br>–*–*–<br>उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलंब कर कारनु काहा॥<br>सतानंद तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब ल्याए॥पूछत भयऊ॥<br>संख निसान पनव बहु बाजे। मंगल कलस सगुन सुभ साजे॥<br>सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥<br>लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती॥<br>कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू॥<br>भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ॥<br>गुरहि पूछि सब चरित भूपगृहँ आए। करि कुल बिधि राजा। चले संग पूजा नृप मुनि साधु समाजा॥बैठाए॥<br>दो०दो0-भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।<br>लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि॥३१३॥कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥130॥<br>–*–*–<br>सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना॥<br>सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा॥<br>प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू॥<br>देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे॥<br>चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना॥<br>नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना॥मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥<br>तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजिआरीं॥<br>बिधिहि भयह आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी॥<br>दो०-सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।<br>लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु॥३१४॥हरष नहिं प्रगट बखाने॥<br>–*–*–<br>जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं॥<br>करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी॥<br>जो एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा॥बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥<br>देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता॥<br>साधु समाज संग महिदेवा। जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा॥<br>सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सेवहिं सकल तनुधारी॥चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥<br>मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी॥<br>पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे। नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे॥<br>दो०-राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि।<br>पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि॥३१५॥<br>–*–*–<br>केकि कंठ दुति स्यामल अंगा। तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा॥<br>ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मंगल लच्छन सब सब भाँति सुहाए॥बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥<br>सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन॥<br>सकल अलौकिक सुंदरताई। सुता सुलच्छन कहि न जाइ मनहीं नृप पाहीं। नारद चले सोच मन भाई॥माहीं॥<br>बंधु मनोहर सोहहिं संगा। जात नचावत चपल तुरंगा॥<br>राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं॥<br>करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि तुरंग पर रामु बिराजे। गति बिलोकि खगनायकु लाजे॥प्रकार मोहि बरै कुमारी॥<br>कहि जप तप कछु जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा॥होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥<br>छं०दो0-जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।<br>आपनें बय बल एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई॥बिसाल।<br>जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।<br>किंकिनि ललाम लगामु ललित जो बिलोकि सुर नर मुनि ठगे॥रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥131॥<br>दो०-प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।<br>भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव॥३१६॥हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥<br>–*–*–मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥<br>जेहिं बर बाजि रामु असवारा। बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि सारदउ न बरनै पारा॥काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥<br>संकरु राम रूप अनुरागे। प्रभु बिलोकि मुनि नयन पंचदस अति प्रिय लागे॥जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥<br>हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे॥<br>निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने॥<br>सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू॥<br>रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना॥<br>देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं॥<br>मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी॥<br>छं०-अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी।<br>बरषहिं सुमन सुर हरषि आरति कहि जय जयति जय रघुकुलमनी॥कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥<br>एहि आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।नहिं पावौं ओही॥<br>रानि सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं॥<br>दो०-सजि आरती अनेक जेहि बिधि मंगल सकल सँवारि।नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥<br>चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि॥३१७॥<br>–*–*–<br>बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि॥<br>पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा॥<br>सकल सुमंगल अंग बनाएँ। करहिं गान कलकंठि लजाएँ॥<br>कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं॥<br>बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमंगलचारा॥<br>सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सहज सयानी॥<br>कपट नारि बर बेष बनाई। मिलीं सकल रनिवासहिं जाई॥<br>करहिं गान कल मंगल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानी॥<br>छं०-को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।<br>कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली॥<br>आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकल माया बल देखि बिसाला। हियँ हरषित भई॥हँसि बोले दीनदयाला॥<br>अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई॥<br>दो०दो0-जो सुख भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।<br>सो सोइ हम करब सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु॥३१८॥आन कछु बचन न मृषा हमार॥132॥<br>–*–*– <br>कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥<br>नयन नीरु हटि मंगल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी॥<br>बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली एहि बिधि सब ब्यवहारू॥हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥<br>पंच सबद धुनि मंगल गाना। पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना॥माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥<br>गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मंडप तब कीन्हा॥<br>दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे॥समाजा॥<br>समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला॥<br>नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनइ मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि कोई॥भोरें॥<br>एहि बिधि रामु मंडपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए॥<br>छं०-बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं॥<br>मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं॥<br>ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।<br>अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं॥<br>दो०-नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।<br>मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप हृदयँ समाइ॥३१९॥जाइ बखाना॥<br>–*–*–<br>मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं॥<br>मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे॥<br>लही सो चरित्र लखि काहुँ कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी॥पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥<br>सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे॥<br>जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें॥<br>सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू॥<br>देव गिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची॥<br>देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए॥<br>छं०दो0-मंडपु बिलोकि बिचीत्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे॥<br>निज पानि जनक सुजान रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब कहुँ आनि सिंघासन धरे॥भेउ।<br>कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।<br>कौसिकहि पूजत बिप्रबेष देखत फिरहिं परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही॥कौतुकी तेउ॥133॥<br>दो०-बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस।<br>दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस॥३२०॥जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥<br>–*–*–<br>बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ दूजा॥कोऊ॥<br>कीन्ह जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई॥करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥<br>पूजे भूपति सकल बराती। समधि सम सादर सब भाँती॥<br>आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मूख एक उछाहू॥<br>सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी॥<br>बिधि रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥जानि बिसेषी॥<br>कपट बिप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥<br>पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानें॥<br>छं०-पहिचान को केहि जान सबहिं अपान सुधि भोरी भई।<br>आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँद मई॥<br>सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।<br>अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए॥<br>दो०-रामचंद्र मुख चंद्र छबि लोचन चारु चकोर।<br>करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर॥३२१॥<br>–*–*–<br>समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानंदु सुनि आए॥<br>बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित जदपि सुनहिं मुनि आयसु पाई॥<br>रानी सुनि उपरोहित अटपटि बानी। प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी॥समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥<br>बिप्र बधू कुलबृद्ध बोलाईं। करि कुल रीति सुमंगल गाईं॥काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥<br>नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा॥मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥<br>तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारीं। बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं॥<br>बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा सारद सम जानी॥<br>सीय सँवारि समाजु बनाई। मुदित मंडपहिं चलीं लवाई॥<br>छं०दो0-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं।<br>नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं॥<br>कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।<br>मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गती बर बाजहीं॥<br>दो०-सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय।<br>छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय॥३२२॥राजमराल।<br>–*–*–<br>सिय सुंदरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई॥<br>आवत दीखि बरातिन्ह सीता॥रूप रासि देखत फिरइ महीप सब भाँति पुनीता॥<br>सबहि मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा॥<br>हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता॥<br>सुर प्रनामु करि बरसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मंगल मूला॥<br>गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी॥<br>एहि बिधि सीय मंडपहिं आई। प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई॥<br>तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू॥सरोज जयमाल॥134॥<br>छं०-आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।<br>सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं॥<br>मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहैं।<br>भरे कनक कोपर कलस दिसि बैठे नारद फूली। सो सब लिएहिं परिचारक रहैं॥१॥<br><br>कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो। <br><br>एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो॥<br><br>सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेम काहु दिसि देहि लखि परै॥बिलोकी भूली॥<br>पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥<br>मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै॥२॥<br>दो०-होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं।नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥<br>बिप्र बेष धरि बेद दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब कहि बिबाह बिधि देहिं॥३२३॥भयउ निरासा॥<br>–*–*–<br>जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी॥<br>सुजसु सुकृत सुख सुदंरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई॥<br>समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाई। सुनत सुआसिनि सादर ल्याई॥<br>जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि संग बनि मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु मयना॥गाँठी॥<br>कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुंगध मंगल जल पूरे॥<br>तब हर गन बोले मुसुकाई। निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी॥मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥<br>पढ़हिं बेद अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि मंगल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी॥बारि निहारी॥<br>बरु बेषु बिलोकि दंपति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे॥क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥<br>छं०दो0-लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली।होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।<br>नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली॥हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥135॥<br>जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।<br>जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥१॥पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥<br>जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई।<br>मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई॥<br>करि मधुप फरकत अधर कोप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।माहीं। सपदी चले कमलापति पाहीं॥<br>ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहै॥२॥देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई॥<br>बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥<br>भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि आँनद भरैं॥कहँ चले बिकल की नाईं॥<br>सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो।सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥<br>करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥३॥पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥<br>हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु॥<br>तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥<br>क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरी।<br>करि होम बिधिवत गाँठि जोरी होन लागी भावँरी॥४॥<br>दो०दो0-जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान।असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।<br>सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान॥३२४॥स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥136॥<br>–*–*–<br>कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं॥नयन लाभु सब सादर लेहीं॥परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥<br>जाइ भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा हियँ कछु कहौं सो थोरी॥धरहू॥<br>राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खंभन माहीं ।डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥<br>मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा॥<br>दरस लालसा सकुच करम सुभासुभ तुम्हहि थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी॥बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥<br>भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे॥भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥<br>प्रमुदित मुनिन्ह भावँरी फेरी। नेगसहित सब रीति निबेरीं॥बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥<br>राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं॥कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥<br>अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें॥मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥<br>बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन॥<br>छं०दो0-बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए।श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।<br>तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल नए॥निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥137॥<br>भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा।<br>केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा॥१॥जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥<br>तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥<br>माँडवी श्रुतिकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि के॥मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥<br>कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥<br>सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई॥२॥जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा॥<br>जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै।कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥<br>सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै॥<br>जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।<br>पर कृपा न करहिं पुरारी। सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी॥३॥न पाव मुनि भगति हमारी॥<br>अनुरुप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं।<br>सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं॥<br>सुंदरी सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं।<br>जनु जीव अस उर चारिउ अवस्था बिमुन सहित बिराजहीं॥४॥धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥<br>दो०दो0-मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि।बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान॥<br>जनु पार महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि॥३२५॥सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥138॥<br>–*–*–<br>जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी॥हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी॥<br>कहि न जाइ कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मंडपु पूरी॥अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥<br>कंबल बसन बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल हर गन हम थोरे॥बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥<br>गज रथ तुरग दास अरु दासी। धेनु अलंकृत कामदुहा सी॥श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥<br>बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा। कहि न निसिचर जाइ जानहिं जिन्ह देखा॥होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥<br>लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने॥भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ।<br>दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा॥समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥<br>तब कर जोरि जनकु मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी॥चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥<br>छं०दो0-सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै।एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।<br>प्रमुदित महा मुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै॥<br>सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ।<br>सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ॥१॥रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥139॥<br>कर जोरि जनकु बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों।<br>बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों॥<br>संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब एहि बिधि भए।जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥<br>एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए॥२॥कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥<br>ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई।<br>अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई॥<br>पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।<br>कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए॥३॥<br>बृंदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले।<br>दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले॥<br>तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै।तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥<br>दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै॥४॥बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥<br>दो०-पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न।हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥<br>हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन॥३२६॥<br>मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम<br>–*–*–<br>स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि मनोज लजावन॥लगि जाहिं न गाए॥<br>जावक जुत पद कमल सुहाए। यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए॥ग्यानी॥<br>पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती॥<br>कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर॥<br>पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई॥<br>सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे॥<br>पिअर उपरना काखासोती। दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती॥<br>नयन कमल कल कुंडल काना। बदनु प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी॥सेवत सुलभ सकल सौंदर्ज निधाना॥दुख हारी॥<br>सुंदर भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा॥<br>सोहत मौरु मनोहर माथे। मंगलमय मुकुता मनि गाथे॥<br>छं०सो0-गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं।<br>पुर नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं॥<br>मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहिं।<br>सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं॥१॥<br>कोहबरहिं आने कुँअर कुँअरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।<br>अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै॥<br>लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।<br>रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं॥२॥<br>निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की।<br>चालति नर मुनि कोउ नाहिं जेहि भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी॥मोह माया प्रबल॥<br>कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं।अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥140॥<br>बर कुअँरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं॥३॥<br>तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥<br>चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चारयो मुदित मन सबहीं कहा॥जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥<br>जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि जो प्रभु दुंदुभि हनी।<br>चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी॥४॥<br>दो०-सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास।<br>सोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास॥३२७॥<br>–*–*–<br>पुनि जेवनार भई बहु भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती॥<br>परत पाँवड़े बसन अनूपा। सुतन्ह बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत गवन कियो भूपा॥धरें मुनिबेषा॥<br>सादर सबके पाय पखारे। जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे॥जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥<br>धोए जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना॥अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥<br>बहुरि राम पद पंकज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए॥<br>तीनिउ भाई राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी॥<br>आसन उचित सबहि नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब लीन्हे॥कहिहउँ मति अनुसारा॥<br>सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे॥<br>दो०-सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत।<br>छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत॥३२८॥<br>–*–*–<br>पंच कवल करि जेवन लअगे। गारि गान भरद्वाज सुनि अति अनुरागे॥संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी॥<br>भाँति अनेक परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने॥<br>परुसन लगे सुआर सुजाना। बिंजन बिबिध नाम को जाना॥बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥<br>चारि भाँति भोजन बिधि गाई। एक एक बिधि बरनि न जाई॥<br>छरस रुचिर बिंजन बहु जाती। एक एक रस अगनित भाँती॥<br>जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी॥<br>समय सुहावनि गारि बिराजा। हँसत राउ सुनि सहित समाजा॥<br>एहि बिधि सबहीं भौजनु कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा॥<br>दो०दो0-देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज।सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई॥<br>जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज॥३२९॥<br>–*–*–<br>नित नूतन राम कथा कलि मल हरनि मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं॥करनि सुहाइ॥141॥<br>बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे॥<br>देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता॥स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥<br>प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं॥दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥<br>करि प्रनाम पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी॥नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू॥<br>तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरनकाजा॥लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहि जाही॥<br>अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाई॥<br>सुनि गुर करि महिपाल बड़ाई। देवहूति पुनि पठए तासु कुमारी। जो मुनि बृंद बोलाई॥कर्दम कै प्रिय नारी॥<br>दो०-बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि।आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥<br>आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि॥३३०॥सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्व बिचार निपुन भगवाना॥<br>–*–*–<br>दंड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे॥<br>चारि लच्छ बर धेनु मगाई। कामसुरभि सम सील सुहाई॥<br>तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि सकल अलंकृत कीन्हीं। मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं॥प्रतिपाला॥<br>करत बिनय बहु बिधि नरनाहू। लहेउँ आजु जग जीवन लाहू॥<br>पाइ असीस महीसु अनंदा। लिए बोलि पुनि जाचक बृंदा॥<br>कनक बसन मनि हय गय स्यंदन। दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन॥<br>चले पढ़त गावत गुन गाथा। जय जय जय दिनकर कुल नाथा॥<br>एहि बिधि राम बिआह उछाहू। सकइ न बरनि सहस मुख जाहू॥<br>दो०सो0-बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।<br>यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ॥३३१॥<br>–*–*–<br>जनक सनेहु सीलु करतूती। नृपु सब भाँति सराह बिभूती॥<br>दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा॥<br>नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई॥<br>नित नव नगर अनंद उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ होइ काहू॥बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।<br>हृदयँ बहुत दिवस बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती॥दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥142॥ <br>कौसिक सतानंद बरबस राज सुतहि तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई॥दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥<br>अब दसरथ कहँ आयसु देहू। जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू॥तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥<br>भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए॥<br>दो०-अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ।<br>भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ॥३३२॥<br>–*–*–<br>पुरबासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता॥<br>सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने॥<br>जहँ जहँ आवत बसे बराती। बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती॥हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥<br>बिबिध भाँति मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना॥<br>भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठई जनक अनेक सुसारा॥<br>तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा॥<br>मत्त सहस दस सिंधुर साजे। जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे॥<br>कनक बसन मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना॥<br>दो०-दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।<br>जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि॥३३३॥<br>–*–*–<br>सबु समाजु एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई॥<br>चलिहि बरात सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु लघु पानीं॥धरें सरीरा॥<br>पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं। देइ असीस सिखावनु देहीं॥पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥<br>होएहु संतत पियहि पिआरी। चिरु अहिबात असीस हमारी॥<br>सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू॥<br>अति सनेह बस सखीं सयानी। नारि आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम सिखवहिं मृदु बानी॥धुरंधर नृपरिषि जानी॥<br>जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर सकल कुअँरि समुझाई। रानिन्ह बार बार उर लाई॥करवाए॥<br>बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं॥कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना ।<br>दो०दो0-तेहि अवसर भाइन्ह द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित रामु भानु कुल केतु।अनुराग।<br>चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु॥३३४॥बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥143॥<br>–*–*–<br>चारिअ भाइ सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए॥करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥<br>कोउ कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू॥पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥<br>लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी॥<br>को जानै केहि सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी॥<br>मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा॥<br>पाव नारकी हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसे॥<br>निरखि राम सोभा उर धरहू। निज मन फनि मूरति मनि करहू॥<br>एहि बिधि सबहि अभिलाष निंरंतर होई। देखअ नयन फलु देता। गए कुअँर सब राज निकेता॥परम प्रभु सोई॥<br>दो०-रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु।अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥<br>करहि निछावरि आरती महा मुदित मन सासु॥३३५॥नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥<br>–*–*–संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥<br>देखि राम छबि अति अनुरागीं। प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं॥<br>रही न लाज प्रीति उर छाई। सहज सनेहु बरनि किमि जाई॥<br>भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए। छरस असन अति ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु जेवाँए॥लीलातनु गहई॥<br>बोले रामु सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी॥<br>राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए॥<br>मातु मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू॥<br>सुनत जौं यह बचन बिलखेउ रनिवासू। बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू॥सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजहि अभिलाषा॥<br>हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही॥दो0-एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार।<br>छं०-करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर संबत सप्त सहस्त्र पुनि पुनि कहै।रहे समीर अधार॥144॥<br>बलि जाँउ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै॥<br>परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥<br>तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी॥बिधि हरि तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥<br>सो०-तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय।<br>जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन॥३३६॥<br>अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पंक जनु गिरा समानी॥<br>सुनि सनेहसानी मागहु बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी॥बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥<br>राम बिदा मागत कर जोरी। कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी॥अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥<br>पाइ असीस बहुरि सिरु नाई। भाइन्ह सहित चले रघुराई॥<br>मंजु मधुर मूरति उर आनी। भई सनेह सिथिल सब प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥<br>पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारी। बार बार भेटहिं महतारीं॥<br>पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी॥<br>पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई॥<br>दो०-प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु।<br>मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु॥३३७॥<br>–*–*–<br>सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए॥<br>ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही॥<br>भए बिकल खग मृग एहि भाँति। मनुज दसा कैसें कहि जाती॥<br>बंधु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए॥<br>सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम बिरागी॥गभीर कृपामृत सानी॥<br>लीन्हि राँय मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की॥जब आई॥<br>समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने॥<br>बारहिं बार सुता उर लाई। सजि सुंदर पालकीं मगाई॥<br>दो०-प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस।<br>कुँअरि चढ़ाई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस॥३३८॥<br>–*–*–<br>बहुबिधि भूप सुता समुझाई। नारिधरमु कुलरीति सिखाई॥<br>दासीं दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे॥<br>सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मंगल रासी॥<br>भूसुर सचिव समेत समाजा। संग चले पहुँचावन राजा॥<br>समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे॥<br>दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे॥<br>चरन सरोज धूरि धरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा॥<br>सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना। मंगलमूल सगुन ह्रष्टपुष्ट तन भए नाना॥सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥<br>दो०दो0-सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान।श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।<br>चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान॥३३९॥<br>–*–*–<br>नृप बोले मनु करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे॥<br>भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। दंडवत प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे॥<br>बार बार बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि उर राखी॥<br>बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै चहहीं॥हृदयँ समात॥145॥<br>पुनि कह भूपति बचन सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए॥<br>राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े॥<br>तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी॥<br>करौ कवन सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई॥हरि हर बंदित पद रेनू॥<br>दो०-कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥<br>मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति॥३४०॥जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥<br>–*–*–<br>जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा॥जतन कराहीं॥<br>सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता॥<br>जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए॥<br>राम करौ केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस जो भुसुंडि मन मानस हंसा॥<br>करहिं जोग जोगी हंसा। सगुन अगुन जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी॥निगम प्रसंसा॥<br>ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी॥<br>मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी॥<br>महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई॥<br>दो०-नयन बिषय मो कहुँ भयउ देखहिं हम सो समस्त सुख मूल।<br>सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल॥३४१॥<br>–*–*–<br>सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई॥<br>होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक रूप भरि लेखा॥लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥<br>मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा॥<br>मै कछु कहउँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें॥<br>बार बार मागउँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें॥<br>सुनि बर दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे॥रस पागे॥<br>करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने॥भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥<br>बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही॥<br>दो०दो0-मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।<br>भए परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस॥३४२॥<br>–*–*–<br>बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई॥<br>जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई॥<br>सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें॥<br>जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं॥<br>सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी॥<br>कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई॥<br>चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई॥<br>रामहि लाजहिं तन सोभा निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥कोटि कोटि सत काम॥146॥<br>दो०-बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।<br>अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत॥३४३॥ûसरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥<br>–*–*–अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥<br>हने निसान पनव बर बाजे। भेरि संख धुनि हय गय गाजे॥नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की॥<br>झाँझि बिरव डिंडमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई॥भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥<br>पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता॥कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥<br>निज निज सुंदर सदन सँवारे। हाट बाट चौहट पुर द्वारे॥उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥<br>गलीं सकल अरगजाँ सिंचाई। जहँ तहँ चौकें केहरि कंधर चारु पुराई॥जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥<br>बना बजारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना॥<br>सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदंब तमाला॥<br>लगे करि कर सरि सुभग तरु परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी॥भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥<br>दो०दो0-बिबिध भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे सँवारि।तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि॥<br>सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि॥३४४॥<br>–*–*–<br>भूप भवन तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा॥<br>मंगल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई॥<br>नाभि मनोहर लेति जनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ दसरथ गृहँ छाए॥<br>देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही॥<br>जुथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज जमुन भवँर छबि निदरहिं मदन बिलासनि॥छीनि॥147॥<br>सकल सुमंगल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती॥<br>भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न पद राजीव बरनि समउ सुखु सोई॥<br>कौसल्यादि राम महतारीं। प्रेम बिबस तन दसा बिसारीं॥<br>दो०-दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारी।<br>प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि॥३४५॥<br>–*–*–<br>मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता॥<br>राम दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीं॥<br>बिबिध बिधान बाजने बाजे। मंगल मुदित सुमित्राँ साजे॥<br>हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मंगल मूला॥<br>अच्छत अंकुर लोचन लाजा। मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा॥<br>छुहे पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड़ बनाए॥<br>सगुन सुंगध न जाहिं बखानी। मंगल सकल सजहिं सब रानी॥<br>रचीं आरतीं बहुत बिधाना। मुदित करहिं कल मंगल गाना॥<br>दो०-कनक थार भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात।<br>चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात॥३४६॥<br>–*–*–<br>धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ॥<br>सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं॥<br>मंजुल मनिमय बंदनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे॥<br>प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि॥<br>दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा॥<br>सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी॥<br>समउ जानी गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा॥<br>सुमिरि संभु गिरजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा॥<br>दो०-होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदुभीं बजाइ।<br>बिबुध बधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ॥३४७॥<br>–*–*–<br>मागध सूत बंदि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर॥<br>जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी॥<br>बिपुल बाजने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे॥<br>बने बराती बरनि न नहि जाहीं। महा मुदित मुनि मन सुख न समाहीं॥मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥<br>पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहि भए सुखारे॥बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥<br>करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा॥<br>आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुँअर बर चारी॥<br>सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी॥<br>दो०-एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर।<br>मुदित मातु परुछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार॥३४८॥<br>–*–*–<br>करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा॥<br>भूषन मनि पट नाना जाती॥करही निछावरि जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित भाँती॥लच्छि उमा ब्रह्मानी॥<br>बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानंद मगन महतारी॥<br>पुनि पुनि सीय भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम छबि देखी॥मुदित सफल जग जीवन लेखी॥बाम दिसि सीता सोई॥<br>सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही॥<br>बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा॥<br>देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढँढोरीं॥<br>देत न बनहिं निपट लघु लागी। छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहीं रूप अनुरागीं॥रहे नयन पट रोकी॥<br>दो०-निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत।<br>बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत॥३४९॥<br>–*–*–<br>चारि सिंघासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए॥<br>तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। चितवहिं सादर पाय पुनित पखारे॥रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥<br>धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मंगलनिधि॥हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥<br>बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं॥<br>बस्तु अनेक निछावर होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं॥<br>पावा परम तत्व जनु जोगीं। अमृत लहेउ जनु संतत रोगीं॥<br>जनम रंक जनु पारस पावा। अंधहि लोचन लाभु सुहावा॥<br>मूक बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई॥<br>दो०-एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु॥<br>भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु॥३५०(क)॥<br>लोक रीत जननी करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं।<br>मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसकाहिं॥३५०(ख)॥<br>–*–*–<br>देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की॥<br>सबहिं बंदि मागहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना॥<br>अंतरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अंचल भरि लेंहीं॥<br>भूपति बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे॥<br>आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गए सब परसे प्रभु निज निज धामहि॥कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥<br>पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए॥<br>जाचक जन जाचहि जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई॥<br>सेवक सकल बजनिआ नाना। पूरन किए दान सनमाना॥<br>दो०दो0-देंहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ।<br>तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ॥३५१॥<br>–*–*–<br>जो बसिष्ठ अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही॥<br>भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड़ जानी॥<br>पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए॥<br>आदर दान प्रेम परिपोषे। देत असीस चले मन तोषे॥<br>बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि सम धन्य न दूजा॥जानि।<br>कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी॥<br>भीतर भवन दीन्ह मागहु बर बासु। जोइ भाव मन जोगवत रह नृप रनिवासू॥महादानि अनुमानि॥148॥<br>पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी॥<br>दो०-बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु।<br>पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु॥३५२॥<br>–*–*–<br>बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें। सुत संपदा राखि सब आगें॥<br>नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा॥<br>उर सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता॥धीरजु बोली मृदु बानी॥<br>बिप्रबधू सब भूप बोलाई। चैल चारु भूषन पहिराई॥<br>बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं॥<br>नेगी नेग जोग सब लेहीं। रुचि अनुरुप भूपमनि देहीं॥<br>प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने॥<br>देव नाथ देखि रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू॥<br>दो०-चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ।<br>कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ॥३५३॥<br>–*–*–<br>पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू॥काम हमारे॥<br>जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे॥<br>लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु जेता॥<br>बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियँ हरषि दुलारीं॥<br>देखि समाजु मुदित रनिवासू। सब कें एक लालसा बड़ि उर अनंद कियो बासू॥<br>कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू। सुनि हरषु होत सब काहू॥<br>जनक राज गुन सीलु बड़ाई। प्रीति रीति संपदा सुहाई॥<br>बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी॥<br>दो०-सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति।<br>भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति॥३५४॥<br>–*–*–<br>मंगलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि॥<br>अँचइ पान सब काहूँ पाए। स्त्रग सुगंध भूषित छबि छाए॥<br>रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई॥<br>प्रेम प्रमोद बिनोदु बढ़ाई। समउ समाजु मनोहरताई॥<br>माही। सुगम अगम कहि न सकहि सत सारद सेसू। बेद बिरंचि महेस गनेसू॥<br>जात सो मै कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी॥नाहीं॥<br>नृप सब भाँति सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाई रानी॥तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥<br>बधू लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाई॥जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥<br>दो०-लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।<br>अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ॥३५५॥<br>–*–*–<br>भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए॥<br>सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना॥<br>उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्त्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं॥<br>रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ तासु प्रभा जान जेहिं जोवा॥<br>सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए॥<br>अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही॥<br>देखि स्याम मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता॥<br>मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी॥<br>दो०-घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु॥सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥<br>मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु॥३५६॥सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥<br>–*–*–<br>मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी॥<br>मख रखवारी करि दुहुँ भाई। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाई॥<br>मुनितय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी॥<br>कमठ पीठि पबि कूट कठोरा। सकुच बिहाइ मागु नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा॥मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥<br>बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई॥दो0-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ॥<br>सकल अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपाँ सुधारे॥<br>आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा॥<br>जे दिन गए चाहउँ तुम्हहि बिनु देखें। ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें॥<br>दो०-राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन।<br>सुमिरि संभु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन॥३५७॥<br>–*–*–<br>नीदउँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना॥<br>घर घर करहिं जागरन नारीं। देहिं परसपर मंगल गारीं॥<br>पुरी बिराजति राजति रजनी। रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी॥<br>सुंदर बधुन्ह सासु लै सोई। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोई॥<br>प्रात पुनीत काल समान सुत प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे॥सन कवन दुराउ॥149॥<br>बंदि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए॥<br>बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता॥<br>जननिन्ह सादर बदन निहारे। भूपति संग द्वार पगु धारे॥<br>दो०-कीन्ह सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।<br>प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ॥३५८॥<br>नवान्हपारायण,तीसरा विश्राम<br>–*–*–<br>भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठै हरषि रजायसु पाई॥<br>देखि रामु सब सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी॥<br>पुनि बसिष्टु मुनि कौसिक आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए॥<br>सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे॥<br>कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीसु सहित रनिवासा॥<br>मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी॥<br>बोले बामदेउ सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माची॥<br>प्रीति सुनि आनंदु भयउ सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू॥बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥<br>दो०-मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥<br>उमगी अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति॥३५९॥सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे॥<br>–*–*–जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥<br>सुदिन सोधि कल कंकन छौरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे॥प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥<br>नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं॥<br>बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं॥<br>दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ॥<br>मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे॥<br>नाथ तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी॥उर अंतरजामी॥<br>करब सदा लरिकनः पर छोहू। दरसन देत रहब मुनि मोहू॥<br>अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी॥<br>दीन्ह असीस बिप्र बहु भाँती। चले न प्रीति रीति कहि जाती॥<br>रामु सप्रेम संग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई॥<br>दो०-राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनंदु।<br>जात सराहत मनहिं समुझत मन मुदित गाधिकुलचंदु॥३६०॥<br>–*–*–<br>बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी॥<br>सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ॥<br>बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ॥<br>जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा॥<br>आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनंद अवध सब तब तें॥<br>संसय होई। कहा जो प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू॥प्रवान पुनि सोई॥<br>कबिकुल जीवनु पावन जानी॥राम सीय जसु मंगल खानी॥<br>तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु जे निज बानी॥भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥<br>छं०दो0-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसी कह्यो।चरन सनेहु॥<br>रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो॥<br>उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।<br>बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं॥<br>सो०-सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।<br>तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु॥३६१॥<br>मासपारायण, बारहवाँ विश्राम<br>इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषबिध्वंसने<br>प्रथमः सोपानः समाप्तः।<br>'''(बालकाण्ड समाप्त)'''सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥150॥<br/poem>