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{{KKRachna
|रचनाकार=तुलसीदास
|संग्रह=रामचरितमानस / तुलसीदास
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|सारणी=रामचरितमानस / तुलसीदास
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{{KKCatAwadhiRachna}}<brpoem>चौ०-एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए ॥पौढ़ाए॥<br>निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥१॥अस्नाना॥<br>करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥<br>बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥२॥जाई॥<br>गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता॥<br>बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई॥३॥होई॥<br>इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा॥<br>देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥ ४॥<br>दो०दो0-देखरावा मातहि निज अद्भुत अदभुत रुप अखंड।<br>रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड॥ २०१॥201॥<br><br>चौ०-अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥<br>काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥१ ॥काऊ॥<br>देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥<br>देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥२ ॥ताही॥<br>तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥<br>बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥३॥खरारी॥<br>अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥<br>हरि जननी जननि बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥४॥माई॥<br>दो०दो0-बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि॥<br>अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥ २०२॥202॥<br><br>चौ०-बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा॥<br>कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥१ ॥सुखदाई॥<br>चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥<br>परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥२॥सुकुमारा॥<br>मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥<br>भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥३॥समाजा॥<br>कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई॥<br>निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥४॥धावा॥<br>धूसर धूरस धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥५॥बैठाए॥<br>दो०दो0-भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।<br>भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥२०३॥लपटाइ॥203॥<br><br>चौ०-बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥<br>जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥१ ॥बिधाता॥<br>भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥<br>गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥२॥आई॥<br>जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥<br>बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला॥३॥नृपलीला॥<br>करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥<br>जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥४॥लुगाई॥<br>दो०दो0- कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।<br>प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥२०४॥कृपाल॥204॥<br><br>चौ०-बंधु सखा संग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥<br>पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥१ ॥आनी॥<br>जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे॥<br>अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं॥२॥अनुसरहीं॥<br>जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥<br>बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥३॥समुझाई॥<br>प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥<br>आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥४॥राजा॥<br>दो०दो0-ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।<br>भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥२०५॥अनूप॥205॥<br><br>चौ०-यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥<br>बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बसहि बिपिन सुभ आश्रम जानी॥१ ॥जानी॥<br>जहँ जप जग्य मुनि करहीं। करही। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥<br>देखत जग्य निसाचर धावहिं। धावहि। करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥२॥पावहिं॥<br>गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं मरहि न निसिचर पापी॥<br>तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥३॥भारा॥<br>एहूँ एहुँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौं आनौ दोउ भाई॥<br>ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मैं मै देखब भरि नयना॥४॥नयना॥<br>दो०दो0-बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।<br>करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥२०६॥दरबार॥206॥<br><br>चौ०-मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयऊ लै बिप्र समाजा॥<br>करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥१ ॥आनी॥<br>चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥<br>बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा॥२॥पावा॥<br>पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥<br>भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥३॥लोभा॥<br>तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥<br>केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥४॥बारा॥<br>असुर समूह सतावहिं मोही। मै जाचन आयउँ नृप तोही॥<br>अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥५॥सनाथा॥<br>दो०दो0-देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।<br>धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥२०७॥कल्यान॥207॥<br><br>चौ०-सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥<br>चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥१ ॥बिचारी॥<br>मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥<br>देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। नाही। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥२॥माही॥<br>सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाई॥<br>कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा॥३॥किसोरा॥<br>सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥<br>तब बसिष्ट बहुबिधि बहु निधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥४॥पावा॥<br>अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥<br>मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥५॥कोऊ॥<br>दो०दो0-सौंपे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस।<br>जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥२०८सीस॥208(क)॥<br>सो०सो0-पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन॥<br>कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥२०८करन॥208(ख)<br><br>चौ०-अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥<br>कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥१ ॥हाथा॥<br>स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्वामित्र बिस्बामित्र महानिधि पाई॥<br>प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना। मोहि निति पिता तजेहु भगवाना॥२॥भगवाना॥<br>चले जात मुनि दीन्हि देखाई। दिखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥<br>एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥३॥दीन्हा॥<br>तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥<br>जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥४॥प्रकासा॥<br>दो०दो0-आयुध सर्ब आयुष सब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।<br>कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि॥२०९॥जानि॥209॥<br><br>चौ०-प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥<br>होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥१ ॥रखवारी॥<br>सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥<br>बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥२॥पारा॥<br>पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा॥<br>मारि असुर द्विज निर्भयकारी। निर्मयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥३॥झारी॥<br>तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया॥<br>भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना॥४॥जाना॥<br>तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई॥<br>धनुषजग्य सुनि मुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा॥५॥साथा॥<br>आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥<br>पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥६॥बिसेषी॥<br>दो०दो0-गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।<br>चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥२१०॥रघुबीर॥210॥<br><br>छं०छं0-परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।<br>देखत रघुनायक जन सुखदायक सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥<br>अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।<br>अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥१॥बही॥<br>धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।<br>अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥<br>मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई॥सुखदाई।<br>राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥२॥आई॥<br>मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।<br>देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना॥<br>बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।<br>पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥३॥पाना॥<br>जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।<br>सोई सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥<br>एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।<br>जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी॥४॥भरी॥<br>दो०दो0-अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।<br>तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल॥२११॥जंजाल॥211॥ <br>मासपारायण, सातवाँ विश्राम<br><br>चौ०-चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा॥<br>गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥१ ॥आई॥<br>तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥<br>हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥२॥निअराया॥<br>पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥<br>बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥३॥सोपाना॥<br>गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥<br>बरन बरन बिकसे बनजाता। बन जाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥४॥सुखदाता॥<br>दो०दो0-सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।<br>फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥२१२॥पास॥212॥<br><br>चौ०-बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥<br>चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥१॥सँवारी॥<br>धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठ सकल बस्तु लै नाना॥<br>चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥२॥सिंचाई॥<br>मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥<br>पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता॥३॥गुनवंता॥<br>अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥<br>होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥४॥रोकी॥<br>दो०दो0-धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।<br>सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥२१३॥जाति॥213॥<br><br>चौ०-सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥<br>बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रथ संकुल सब काला॥१॥काला॥<br>सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥<br>पुर बाहेर सर सरित सारित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥२॥महीपा॥<br>देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई॥<br>कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥३॥सुजाना॥<br>भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनिबृंद समेता॥<br>बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥४॥पाए॥<br>दो०दो0-संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।<br>चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥२१४॥भाँति॥214॥<br><br>चौ०-कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥<br>बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥१॥अनंदे॥<br>कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥<br>तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥२॥फुलवाई॥<br>स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥<br>उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए॥३॥बैठाए॥<br>भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥<br>मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥४॥बिसेषी॥<br>दो०दो0-प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।<br>बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥२१५॥गभीर॥215॥<br><br>चौ०-कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥<br>ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥१॥आवा॥<br>सहज बिरागरूप बिरागरुप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा॥<br>ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥२॥दुराऊ॥<br>इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥<br>कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥३॥अलीका॥<br>ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥<br>रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥४॥पठाए॥<br>दो०दो0-रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम।<br>मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥२१६॥संग्राम॥216॥<br><br>चौ०-मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ॥प्राभाऊ॥<br>सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥१॥दाता॥<br>इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥<br>सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥२॥सनेहू॥<br>पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू॥<br>म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥३॥अवनीसू॥<br>सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥<br>करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥४॥कराई॥<br>दो०दो0-रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।<br>बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥२१७॥जामु॥217॥<br><br>चौ०-लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥<br>प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥१॥मुसुकाहीं॥<br>राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिंयँ हुलसानी॥<br>परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥२॥पाई॥<br>नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥<br>जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥३॥आवौ॥<br>सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥<br>धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥४॥सुखदाता॥<br>दो०दो0-जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।<br>करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥२१८॥देखाइ॥218॥ मासपारायण, आठवाँ विश्राम नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम<br><br>चौ०-मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता॥<br>बालक बृंदि देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा॥१॥लोभा॥<br>पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा॥<br>तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी॥२॥जोरी॥<br>केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला॥<br>सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन॥३॥मोचन॥<br>कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं॥<br>चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेख रेखा सोभा जनु चाँकी॥४॥चाँकी॥<br>दो०दो0-रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।<br>नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस॥२१९॥सुदेस॥219॥<br><br>चौ०-देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥<br>धाए धाम काम सब त्यागी। मनहुँ मनहु रंक निधि लूटन लागी॥१॥लागी॥<br>निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥<br>जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥२॥अनुरागीं॥<br>कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥<br>सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥३॥नाहीं॥<br>बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥<br>अपर देउ अस कोउ न आही। यह छबि सखि पटतरिअ जाही॥४॥जाही॥<br>दो०दो0-बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख धाम घाम <br>अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥२२०॥काम॥220॥<br><br>चौ०-कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी॥<br>कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥१॥सयानी॥<br>ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा॥<br>मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे॥२॥मारे॥<br>स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥<br>कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी॥३॥पानी॥<br>गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें॥<br>लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥४॥माता॥<br>दो०दो0-बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।<br>आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥२२१॥नारि॥221॥<br><br>चौ०-देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥<br>जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥१॥बिबाहू॥<br>कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने॥<br>सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥२॥भजई॥<br>कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता॥<br>तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू॥३॥संदेहू॥<br>जौं जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥<br>सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥४॥नातें॥<br>दो०दो0-नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।<br>यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥२२२॥भूरि॥222॥<br><br>चौ०-बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबहीं का॥<br>कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदुगात किसोरा॥१॥किसोरा॥<br>सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥<br>सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥२॥अहहीं॥<br>परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥<br>सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥३॥भोरें॥<br>जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥<br>तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मुदु बानीं॥४॥बानी॥<br>दो०दो0-हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद।<br>जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद॥२२३॥परमानंद॥223॥<br><br>चौ०-पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥<br>अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥१॥सँवारी॥<br>चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बैठहिं बेठहिं महिपाला॥<br>तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा॥२॥बिलासा॥<br>कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥<br>तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥३॥बनाए॥<br>जहँ बैंठैं देखहिं सब नारी। जथा जोगु निज कुल अनुहारी॥<br>पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥४॥रचना॥<br>दो०दो0-सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।<br>तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥२२४॥भ्रात॥224॥<br><br>चौ०-सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने॥<br>निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥१॥भाई॥<br>राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥<br>लव निमेष महुँ महँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया॥२॥माया॥<br>भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला॥<br>कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं॥३॥माहीं॥<br>जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई॥<br>कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआई॥४॥बरिआई॥<br>दो०दो0-सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।<br>गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥२२५॥पाइ॥225॥<br><br>चौ०-निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा॥<br>कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥१॥सिरानी॥<br>मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥<br>जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥२॥बिरागी॥<br>तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥<br>बारबार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥३॥कीन्ही॥<br>चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥<br>पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता॥४॥जलजाता॥<br>दो०दो0-उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान॥<br>गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥२२६॥सुजान॥226॥<br><br>चौ०-सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥<br>समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥१॥भाई॥<br>भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई॥<br>लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥२॥बिताना॥<br>नव पल्लव फल सुमन सुमान सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए॥<br>चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥३॥मोरा॥<br>मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥<br>बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥४॥भृंगा॥<br>दो०दो0-बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत।<br>परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥२२७॥देत॥227॥<br><br>चौ०-चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालीगन। मालिगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥<br>तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥१॥पठाई॥<br>संग सखीं सब सुभग सयानी। गावहिं गीत मनोहर बानी॥<br>सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥२॥मोहा॥<br>मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता॥<br>पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥३॥मागा॥<br>एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई॥<br>तेहिं तेहि दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥४॥आई॥<br>दो०दो0-तासु दसा देखी देखि सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।<br>कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन॥२२८॥बैन॥228॥<br><br>चौ०-देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए॥<br>स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥१॥बानी॥<br>सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी॥<br>एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली॥२॥काली॥<br>जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्ह स्वबस नगर नर नारी॥<br>बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥३॥जोगू॥<br>तासु वचन अति सियहि सुहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने॥<br>चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥४॥कोई॥<br>दो०दो0-सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत॥<br>चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥२२९॥सभीत॥229॥<br><br>चौ०-कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥<br>मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही॥मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥१॥कीन्ही॥<br>अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥<br>भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥२॥दिगंचल॥<br>देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥<br>जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥३॥देखाई॥<br>सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥<br>सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥४॥बिदेहकुमारी॥<br>दो०दो0-सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि।<br>बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥२३०॥अनुहारि॥230॥<br><br>चौ०-तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥<br>पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरइ फुलवाई॥१॥फुलवाई॥<br>जासु बिलोकि अलौकिक अलोकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥<br>सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥२॥भ्राता॥<br>रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥<br>मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥३॥हेरी॥<br>जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥<br>मंगन लहहि न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥४॥माहीं॥<br>दो०दो0-करत बतकही बतकहि अनुज सन मन सिय रूप लोभान।<br>मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥२३१॥पान॥231॥<br><br>चौ०-चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता॥<br>जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥१॥श्रेनी॥<br>लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए॥<br>देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥२॥पहिचाने॥<br>थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥<br>अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥३॥चकोरी॥<br>लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥<br>जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥४॥सकुचानी॥<br>दो०दो0-लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।<br>निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ॥२३२॥बिलगाइ॥232॥<br><br>चौ०-सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥<br>मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥१॥के॥<br>भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥<br>बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥२॥रतनारे॥<br>चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला॥<br>मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥३॥लजाहीं॥<br>उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा॥<br>सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥४॥लोना॥<br>दो०दो0-केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।<br>देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥२३३॥अपान॥233॥<br><br>चौ०-धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥<br>बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥१॥लेहू॥<br>सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥<br>नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥२॥छोभा॥<br>परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहि सभीता॥<br>पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥३॥आली॥<br>गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥<br>धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरि अपनपउ पितुबस जाने॥४॥जाने॥<br>दो०दो0-देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।<br>निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥२३४॥थोरि॥ 234॥<br><br>चौ०-जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥<br>प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥१॥खानी॥<br>परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित भीतीं लिख लीन्ही॥<br>गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥२॥जोरी॥<br>जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥<br>जय गज बदन षडानन षड़ानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥३॥गाता॥<br>नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥<br>भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि४॥॥बिहारिनि॥<br>दो०दो0-पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।<br>महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥२३५॥सेष॥235॥<br><br>चौ०-सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥<br>देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥१॥सुखारे॥<br>मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥<br>कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥२॥बैदेहीं॥<br>बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥<br>सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥३॥भरेऊ॥<br>सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥<br>नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥४॥राचा॥<br>छं०छं0-मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।<br>करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥<br>एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।<br>तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥<br>सो०सो0-जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।<br>मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥२३६॥लगे॥236॥<br><br>चौ०-हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥<br>राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥१॥नाहीं॥<br>सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥<br>सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे॥२॥सुखारे॥<br>करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥<br>बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई॥३॥भाई॥<br>प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥<br>बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥४॥नाहीं॥<br>दो०दो0-जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।<br>सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥२३७॥रंक॥237॥<br><br>चौ०-घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥<br>कोक सोकप्रद सिकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥१॥तोही॥<br>बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे॥<br>सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी॥२॥जानी॥<br>करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥<br>बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥३॥लागे॥<br>उदउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता॥<br>बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥४॥बानी॥<br>दो०दो0-अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।<br>जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥२३८॥बलहीन॥238॥<br><br>चौ०-नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥<br>कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥१॥अवसाना॥<br>ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥<br>उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥२॥प्रकासा॥<br>रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥<br>तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी॥३॥परिपाटी॥<br>बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥<br>नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥४॥नाए॥<br>सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए॥<br>जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥५॥भाई॥<br>दो०दो0-सतानंद पद सतानंदûपद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।<br>चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥२३९॥बोलाइ॥239॥<br><br>मासपारायण, आठवाँ विश्राम<br>नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम<br><br>चौ०-सीय स्वयंबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥<br>लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥१॥होई॥<br>हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥<br>पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला॥२॥साला॥<br>रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥<br>चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥३॥नारी॥<br>देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥<br>तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहु देहू सब काहू॥४॥काहू॥<br>दो०दो0-कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।<br>उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥२४०॥अनुहारि॥240॥<br><br>चौ०-राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥<br>गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥१॥सरीरा॥<br>राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥<br>जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥२॥तैसी॥<br>देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥<br>डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥३॥भारी॥<br>रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा॥<br>पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥४॥सुखदाई॥<br>दो०दो0-नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।<br>जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥२४१॥अनूप॥241॥<br><br>चौ०-बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥<br>जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥१॥जैसें॥<br>सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥<br>जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥२॥प्रकासा॥<br>हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥<br>रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥३॥कथनीया॥<br>उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥<br>एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥४॥कोसलराऊ॥<br>दो०दो0-राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।<br>सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥२४२॥चोर॥242॥<br><br>चौ०-सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥<br>सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥१॥के॥<br>चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी॥<br>कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला॥२॥बोला॥<br>कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥<br>भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥३॥लजाहीं॥<br>पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं॥<br>रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥४॥सीवाँ॥<br>दो०दो0-कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।<br>बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥२४३॥बिसाल॥243॥<br><br>चौ०-कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे॥<br>पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥१॥छाए॥<br>देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥<br>हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥२॥जाई॥<br>करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥<br>जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥३॥कोऊ॥<br>निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥<br>भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥४॥लहेऊ॥<br>दो०दो0-सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।<br>मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥२४४॥महिपाल॥244॥<br><br>चौ०-प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे॥<br>असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥१॥नाहीं॥<br>बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥<br>अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥२॥गवाँई॥<br>बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी॥<br>तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥३॥बिआहा॥<br>एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥<br>यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥४॥सयाने॥<br>सो०सो0-सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के॥<br>जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥२४५॥बाँकुरे॥245॥<br><br>चौ०-ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥<br>सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता॥१॥सीता॥<br>जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥<br>सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥२॥बासी॥<br>सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥<br>करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥३॥पावा॥<br>अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥<br>देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥४॥गाना॥<br>दो०दो0-जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई।<br>चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं॥२४६॥लवाईं॥246॥<br><br>चौ०-सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥<br>उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥१॥अनुरागीं॥<br>सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥<br>जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥२॥कमनीया॥<br>गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥<br>बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥३॥बैदेही॥<br>जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छपु कच्छप सोई॥<br>सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू॥४॥मारू॥<br>दो०दो0-एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।<br>तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥२४७॥समतूल॥247॥<br><br>चौ०-चलीं चलिं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥<br>सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥१॥भारी॥<br>भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए॥<br>रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥२॥नारी॥<br>हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई। बरषि प्रसून अपछरा गाई॥<br>पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला॥३॥भुआला॥<br>सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा॥<br>मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥४॥पाई॥<br>दो०दो0-गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि॥<br>लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥२४८॥आनि॥248॥<br><br>चौ०-राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥<br>सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥१॥माहीं॥<br>हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥<br>बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु। सीय राम कर करै बिबाहू॥२॥बिबाहू॥<br>जग भल कहहि भाव सब काहू। हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू॥<br>एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥३॥जोगू॥<br>तब बंदीजन जनक बोलाए। बौलाए। बिरिदावली कहत चलि आए॥<br>कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥४॥थोरा॥<br>दो०दो0-बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।<br>पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥२४९॥बिसाल॥249॥<br><br>चौ०-नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥<br>रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥१॥सिधारे॥<br>सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥<br>त्रिभुवन जय समेत बैदेही॥बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥२॥तेही॥<br>सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे॥<br>परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन्ह सिर नाई॥३॥नाई॥<br>तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं॥<br>जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥४॥जाहीं॥<br>दो०दो0-तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।<br>मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥२५०॥गरुआइ॥250॥</poem>