"गीतों में चिल्लाता हूँ / राहुल शिवाय" के अवतरणों में अंतर
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मैं तो ख़ुद चीख नहीं पाता पर गीतों में चिल्लाता हूँ। | मैं तो ख़ुद चीख नहीं पाता पर गीतों में चिल्लाता हूँ। | ||
− | जिस रात मुझे सन्नाटे की आवाज सुनाई देती | + | जिस रात मुझे सन्नाटे की , आवाज सुनाई देती है। |
− | जिस रात मुझे मेरे | + | जिस रात मुझे मेरे दुख की , परछाई दिखाई देती है। |
− | जिस रात घने | + | जिस रात घने अँधियारे में, मैं घुट-घुट कर रह जाता हूँ- |
− | जिस रात मैं अपने सपनों को, उम्मीदों को दफनाता हूँ | + | जिस रात मैं अपने सपनों को, उम्मीदों को दफनाता हूँ । |
− | उस रात मैं गाता हूँ | + | उस रात मैं गाता हूँ दुख को , उस रात मैं तुझे बुलाता हूँ । |
− | मैं तो ख़ुद चीख नहीं पाता पर गीतों में चिल्लाता | + | मैं तो ख़ुद चीख नहीं पाता पर गीतों में चिल्लाता हूँ।। |
− | जिस रात मेरी मजबूरी पर यह हृदय सवाली होता | + | जिस रात मेरी मजबूरी पर , यह हृदय सवाली होता है। |
− | जिस रात मेरे उत्तर का हर तरकश ही खाली होता है | + | जिस रात मेरे उत्तर का हर तरकश ही खाली होता है । |
− | जिस रात मेरी यह खामोशी मुझको ही पल-पल | + | जिस रात मेरी यह खामोशी मुझको ही पल-पल डँसती है- |
− | जिस रात मेरे इस जीवन पर मेरी | + | जिस रात मेरे इस जीवन पर , मेरी हर आशा हँसती है । |
− | उस रात | + | उस रात मैं निज कविताओं से ,सब पर पत्थर बरसाता हूँ । |
− | मैं तो ख़ुद चीख नहीं पाता पर गीतों में चिल्लाता | + | मैं तो ख़ुद चीख नहीं पाता , पर गीतों में चिल्लाता हूँ।। |
− | जिस रात गरमजोशी सें मैं परवाज लगाने उठता | + | जिस रात गरमजोशी सें मैं , परवाज लगाने उठता हूँ। |
− | जिस रात मैं कदम | + | जिस रात मैं कदम बढ़ाकर खुद , बेवश होकर के झुकता हूँ। |
− | जिस रात मेरे इन कदमों पर, मेरा मन भी पछताता है | + | जिस रात मेरे इन कदमों पर, मेरा मन भी पछताता है- |
− | जिस रात मेरी लाचारी को, मन कायरता बतलाता | + | जिस रात मेरी लाचारी को, मन कायरता बतलाता है। |
− | उस रात मैं अपनी हारों को गीतों में जीत दिलाता | + | उस रात मैं अपनी हारों को गीतों में जीत दिलाता हूँ। |
− | मैं तो ख़ुद चीख नहीं पाता पर गीतों में चिल्लाता | + | मैं तो ख़ुद चीख नहीं पाता पर गीतों में चिल्लाता हूँ।। |
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00:02, 10 मई 2017 का अवतरण
मैं तो ख़ुद चीख नहीं पाता पर गीतों में चिल्लाता हूँ।
जिस रात मुझे सन्नाटे की , आवाज सुनाई देती है।
जिस रात मुझे मेरे दुख की , परछाई दिखाई देती है।
जिस रात घने अँधियारे में, मैं घुट-घुट कर रह जाता हूँ-
जिस रात मैं अपने सपनों को, उम्मीदों को दफनाता हूँ ।
उस रात मैं गाता हूँ दुख को , उस रात मैं तुझे बुलाता हूँ ।
मैं तो ख़ुद चीख नहीं पाता पर गीतों में चिल्लाता हूँ।।
जिस रात मेरी मजबूरी पर , यह हृदय सवाली होता है।
जिस रात मेरे उत्तर का हर तरकश ही खाली होता है ।
जिस रात मेरी यह खामोशी मुझको ही पल-पल डँसती है-
जिस रात मेरे इस जीवन पर , मेरी हर आशा हँसती है ।
उस रात मैं निज कविताओं से ,सब पर पत्थर बरसाता हूँ ।
मैं तो ख़ुद चीख नहीं पाता , पर गीतों में चिल्लाता हूँ।।
जिस रात गरमजोशी सें मैं , परवाज लगाने उठता हूँ।
जिस रात मैं कदम बढ़ाकर खुद , बेवश होकर के झुकता हूँ।
जिस रात मेरे इन कदमों पर, मेरा मन भी पछताता है-
जिस रात मेरी लाचारी को, मन कायरता बतलाता है।
उस रात मैं अपनी हारों को गीतों में जीत दिलाता हूँ।
मैं तो ख़ुद चीख नहीं पाता पर गीतों में चिल्लाता हूँ।।