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कुंडलिया / मिलन मलरिहा

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कहत मलरिहा रोज, खार जा कुदरी धरके,
बनफुटु बड़ घपटाय, अब्बड़ मिठाथे चुरके।
 
:::::(4)
 
रिचपिच रिचपिच बाजथे, गेड़ी ह सब गाँव,
लइका चिखला मा कुदे, नई सनावय पाँव ।
नई सनावय पाँव, गेड़ी ह अलगाय रथे,
मिलजुल के फदकाय, चाहे कतको सब मथे।
मलरिहा ल कुड़काय, तोर ह बाजथे खिचरिच,
माटी-तेल ओन्ग, फेर बाजही ग रिचपिच।
 
:::::(5)
 
जीत खेलत सब नरियर, बेला-बेला फेक,
दारु-जुँवा चढ़े हवय, कोनो नइहे नेक।
कोनो नइहे नेक , हरेली गदर मचावत,
करके नसा ह खेल, घरोघर टांडव लावत।
मलरिहा ह डेराय, देखके दरूहा रीत,
नसा म डुबे समाज, कईसे मिलही ग जीत।
 
:::::(6)
 
नोनी बाबू एक हे, झिन कर संगी भेद,
रुढ़ीवादी बिचार ला, लउहा तैहा खेद।
लउहा तैहा खेद, समाज म सुधार आही,
पढ़ही बेटी एक, दूइ घर सिक्छा लाही।
मान मिलनके गोठ, भ्रुणहत्या कर काबू,
भेज दुनो ल एकसंग, इसकुल नोनी बाबू।
 
:::::(7)
 
पुस्तक डरेस लानदे, बिसादे अउ सिलेट,
बरतन चउका झिनकरा, पढ़ाई ल झिन मेट।
पढ़ाई ल झिन मेट, सिक्छा के अधिकार दे,
बेटी बने पढ़ाव, अउ चरित सन्सकार दे।
आही सिक्छा काम, दुख-दरद देही दस्तक,
मनुस छोड़थे संग, फेर नइछोड़य पुस्तक।
 
:::::(8)
 
बेटी पढ़के बाँटही, गांव गांव म गियान,
परकेधन झिन मान रे, इही देस के जान।
इही देस के जान, पढ़लिख नवाजुग लाही,
रुकही अतियाचार, कुकरमी दूर हटाही।
मलरिहा कहत रोज, पुस्तक धरादे बेटी,
अबतो जाग समाज, सिक्छित बनादे बेटी।
 
:::::(9)
 
कहाँले बहूँ लानबो, परगे हवय अकाल ,
बेटा बेटा सब गुनय, इही जगत के हाल।
इही जगत के हाल, कोख भितरी मरवाथे,
गुनले अपन बिचार, बेटी रोटी खवाथे।
कहत मलरिहा गोठ , खुदके माथा घुसाले,
छोड़ देहि सनसार, दाई पाबे कहाँले।
 
::::(10)
 
नोनी बहनी नोहय ग, ए जिनगी के बोझ ,
टूरा होथे मनचला, कोनो रहिथे सोझ।
कोनो रहिथे सोझ, दाई - ददा ल सताथे,
काम बुता ढेचराय , मुड़ी धरके रोवाथे।
मलरिहा कहत गोठ, कानले निकाल पोनी,
कब समझबे मनूस, भविस्य हमर हे नोनी।
</poem>
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