भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दो चार रोज़ ही तो मैं तेरे शहर का था / आनंद कुमार द्विवेदी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आनंद कुमार द्विवेदी |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

16:28, 17 जून 2017 के समय का अवतरण

दो चार रोज ही तो मैं तेरे शहर का था
वरना तमाम उम्र तो मैं भी सफ़र का था

जब भी मिला कोई न कोई चोट दे गया
बंदा वो यकीनन बड़े पक्के जिगर का था

हमने भी आज तक उसे भरने नहीं दिया
रिश्ता हमारा आपका बस ज़ख्म भर का था

तेरे उसूल, तेरे फैसले , तेरा निजाम
मैं किससे उज्र करता, कौन मेरे घर का था

जन्नत में भी कहाँ सुकून मिल सका मुझे
ओहदे पे वहाँ भी कोई तेरे असर का था

मंजिल पे पहुँचने की तुझे लाख दुआएं
‘आनंद’ बस पड़ाव तेरी रहगुज़र का था