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"रह-रह के अपनी हद से गुजरने लगा हूँ मैं / आनंद कुमार द्विवेदी" के अवतरणों में अंतर
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बेख़ौफ़ होके, .. सजने संवरने लगा हूँ मैं,
जब से तेरी गली से गुजरने लगा हूँ मैं
कुछ काम, जो सच्चाइयों को नागवार थे
वो झूठ बोल बोल कर, करने लगा हूँ मैं
गज़लों में आगया कोई सोंचों से निकल कर
शेर-ओ-शुखन से प्यार सा करने लगा हूँ मैं
वो एक नज़र हाय क्या वो एक नज़र थी
रह रह के अपनी हद से गुजरने लगा हूँ मैं
मुझको कोई पहचान न बैठे , इसी डर से
अब गाँव को भी, शहर सा करने लगा हूँ मैं
‘आनंद’ फंस गया है, फरिश्तों के फेर में
अब जाँच परख खुद की भी करने लगा हूँ मैं