भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सत्यानंद के दोहे / सत्यानन्द" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 27: पंक्ति 27:
 
धरम-करम    केॅ  नै  कहोॅ  ‘सत्या’  तोहें  गोल
 
धरम-करम    केॅ  नै  कहोॅ  ‘सत्या’  तोहें  गोल
 
तोरो बनथौं  एक  दिन  बाँसोॅ  के  फगदोल ।
 
तोरो बनथौं  एक  दिन  बाँसोॅ  के  फगदोल ।
 
केनां  हक  मारै  हुनी,  ‘सत्या’  नै  छौं नाप
 
मूसा मांनी में  जनां,  ढुकी  जाय  छै साँप ।
 
 
मदद  करी  दौं  केकरो,  फुर्सत  नै  छै पास
 
दिन  काटी  लेतै  सभैं,  खेली-खेली तास ।
 
 
रंग-रूप  में  नै  फँसोॅ,  असल  चीज  छै  चाल
 
मिरचा  करुवे  लागथौं,  हरा रहेॅ  या लाल ।
 
 
‘सत्या’  दुक्खें  देलकै,  हमरा  एत्हैं  झोल
 
आँखी  में  नै  नीन  छै, ठोरोॅ  पर  नै बोल ।
 
 
विकट-सें-विकट  काम  के, ‘सत्या’  सरल उपाय
 
लेरू  आगू  लै  चलोॅ,  आपन्है  अयतै  गाय ।
 
 
सरङ  लगै  छै  भूत रं  मौसम  लागै  परेत
 
‘सत्या’ सूखी  जाय  जों,  कादोॅ  करलोॅ  खेत ।
 
 
हिरदै में  नै  छौं अगर, निज माटी लेॅ मोह
 
खोजी  लेॅ  निज  वासतें,  मंदारोॅ  पर  खोह ।
 
 
भिड़लोॅ  छोॅ  तेॅ  राखिहोॅ, ‘सत्या’  मन  में  चेत
 
लार  अगर  जित्तोॅ  रहेॅ,  पटवे  करतै  खेत ।
 
 
</poem>
 
</poem>

20:45, 23 जून 2017 के समय का अवतरण

के जानै कखनी कहाँ कौनें साधेॅ वैर
फूकी-फूकी राखियोॅ ‘सत्या’ आपनोॅ पैर ।

सुख सपना दुख सामनें, किंछा लेॅ अरदास
‘सत्या’ हमरोॅ जिंदगी आठो पहर उदास ।

शास्त्रा बिना विद्वान की, अनुभव बिन की ज्ञान
बिन परान के देह रं, तलवारोॅ बिन म्यान ।

‘सत्या’ है संसार छै, हुनके सें आबाद
परमारथ में जे करेॅ अपनां केॅ बरबाद ।

सब्भै लेॅ सुख मांगवै, अपनां लेॅ सेनूर
बाबा बड्डी दूर छै, जैवे मतर जरूर ।

खरखाही के फेर में भै जैवै बदनाम
‘सत्या’ गछबे नै करैं, नै सपड़ौ जों काम ।

धरम-करम केॅ नै कहोॅ ‘सत्या’ तोहें गोल
तोरो बनथौं एक दिन बाँसोॅ के फगदोल ।