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|रचनाकार=सत्यानंदसत्यानन्द
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|संग्रह=
धरम-करम केॅ नै कहोॅ ‘सत्या’ तोहें गोल
तोरो बनथौं एक दिन बाँसोॅ के फगदोल ।
 
केनां हक मारै हुनी, ‘सत्या’ नै छौं नाप
मूसा मांनी में जनां, ढुकी जाय छै साँप ।
 
मदद करी दौं केकरो, फुर्सत नै छै पास
दिन काटी लेतै सभैं, खेली-खेली तास ।
 
रंग-रूप में नै फँसोॅ, असल चीज छै चाल
मिरचा करुवे लागथौं, हरा रहेॅ या लाल ।
 
‘सत्या’ दुक्खें देलकै, हमरा एत्हैं झोल
आँखी में नै नीन छै, ठोरोॅ पर नै बोल ।
 
विकट-सें-विकट काम के, ‘सत्या’ सरल उपाय
लेरू आगू लै चलोॅ, आपन्है अयतै गाय ।
 
सरङ लगै छै भूत रं मौसम लागै परेत
‘सत्या’ सूखी जाय जों, कादोॅ करलोॅ खेत ।
 
हिरदै में नै छौं अगर, निज माटी लेॅ मोह
खोजी लेॅ निज वासतें, मंदारोॅ पर खोह ।
 
भिड़लोॅ छोॅ तेॅ राखिहोॅ, ‘सत्या’ मन में चेत
लार अगर जित्तोॅ रहेॅ, पटवे करतै खेत ।
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