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माँ / श्रीकृष्ण सरल

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<poem>इस एक शब्द 'माँ' में है मंत्र–शक्ति भारी<br>यह मंत्र–शक्ति सबको फलदायी होती है,<br>आशीष–सुधा माँ देती अपने बच्चों को<br>वह स्वयं झेलती दुःख, विषपायी होती है।<br><br>
माँ से कोमल है शब्द–कोश में शब्द नहीं<br>माँ की ममता से बड़ी न कोई ममता है,<br>उपमान और उपमाएँ सबकी मिल सकतीं<br>लेकिन दुनिया में माँ की कहीं न समता है।<br><br>
यह छोटा–सा 'माँ' शब्द, सिन्धु क्षमताओं का<br>तप–त्याग–स्नेह से रहता सदा लबालब है,<br>खारा सागर, माँ की समता क्या कर पाए<br>माँ की महानता से महान कोई कब है।<br><br>
हम लोग जिसे ममता कहकर पुकारते हैं<br>बौनी है वह भी माँ की ममता के सम्मुख,<br>हम लोग जिसे क्षमता कहकर पुकारते हैं<br>बौनी है वह भी माँ की ममता के सम्मुख।<br><br>
माँ की महानता से, महानता बड़ी नहीं<br>माँ के तप से, होता कोई तप बड़ा नहीं,<br>साकार त्याग भी माँ के आगे बौना है<br>माँ के सम्मुख हो सकता कोई खड़ा नहीं।<br><br>
हैं त्याग–आग अनुराग मातृ–उर में पलते<br>वर्षा–निदाघ आँखों में पलते आए हैं,<br>भावना और कर्त्तव्य रहे ताने–बाने<br>चरमोत्कर्ष ममता – क्षमता ने पाए हैं।<br><br>
बेटे के तन का रोयाँ भी दुखता देखे<br>माता आकुल–व्याकुल हो जाया करती है,<br>जब पुत्र–दान की माँग धरा–माता करती<br>इस कठिन कसौटी पर माँ खरी उतरती है।<br><br>
वह धातु अलग, जिससे माँ निर्मित होती है<br>उसको कैसा भी ताप नहीं पिघला सकता,<br>हल्के से हल्का ताप पुत्र – पुत्री को हो<br>माँ के मन के हिम को वह ताप गला सकता|<br><br>
दुनिया में जितने भी सागर, सब उथले हैं<br>माता का उर प्रत्येक सिन्धु से गहरा है,<br>कोई पर्वत, माँ के मन को क्या छू पाए<br>माँ के सम्मुख कोई उपमान न ठहरा है|<br><br>
इतनी महानता भारत की माताओं में<br>अवतारों को भी अपनी गोद खिलाती हैं,<br>हो राम – कृष्ण गौतम या कोई महावीर<br>माताएँ हैं, जो उनको पाठ पढ़ाती हैं।<br><br>
कोई जीजा माँ किसी शिवा को शेर बना<br>जब समर–भूमि में सह–आशीष पठाती है,<br>तो बड़े – बड़े योद्धा भी भाग खड़े होते<br>अरि के खेमों में काई–सी फट जाती है।<br><br>
कोई जगरानी किसी चन्द्रशेखर को जब<br>निज दूध पिला जीवन के पाठ पढ़ाती है,<br>वह दूध खून का फव्वारा बन जाता है<br>वह मौत, मौत को भी झकझोर रुलाती है|<br><br>
कोई विद्या माँ, भगत सिंह से बेटे को<br>जब घोल–घोल घुट्टी में क्रान्ति पिलाती है,<br>तो उसका शैशव बन्दूकें बोने लगता<br>बरजोर जवानी फाँसी को ललचाती है। <br><br>
जब प्रभावती कोई सुभाष से बेटे को<br>भारत–माता की व्यथा–कथा बतलाती है,<br>हर साँस और हर धड़कन उस विद्रोही की<br>धरती की आजादी की बलि चढ़ जाती है।<br><br>
कोई चाफेकर – माता तीन – तीन बेटे<br>भारत माता के ऊपर न्योछावर करती,<br>कहती, चौथा होता तो वह भी दे देती<br>आँसू न एक गिरता, वह आह नहीं भरती।<br><br>
तप और त्याग साकार देखना यदि अभीष्ट<br>तो देखे कोई भारत की माताओं को,<br>कलियों में किसलय में भी लपटें होती हैं<br>तो देखे कोई भारत की ललनाओं को।<br><br>
कर्त्तव्य हमारा, हम माताओं को पूजें<br>आशीष कवच पाकर उनका, निर्भय विचरें,<br>हम लाज रखें उसकी, जो हमने दूध पिया<br>माँ और बड़ी माँ का हम ऊँचा नाम करें।<br><br>
माता माता तो है ही, गुरु भी होती है<br>माता ही पहले–पहले सबक सिखाती है,<br>माँ घुट्टी में ही जीवन घोल पिला देती<br>माँ ही हमको जीवन की राह दिखाती है।<br><br>
हम जननी की, भारत–जननी की जय बोलें<br>निज जीवन देकर उनके कर्ज चुकाएँ हम<br>जो सीख मिली है, उसका पालन करने को<br>निज शीश कटा दें, उनको नहीं झुकाएँ हम।<br><br/poem>
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