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"कठै गया बै दिन / ओम पुरोहित ‘कागद’" के अवतरणों में अंतर

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मा जद थूं ही
जद थूं सारती
आपरे हाथां उपाड्य़ो
नीम रो काजळ
म्हारी आंख्यां में।

कित्तो मोवणों, सावळ
दीखतो बां दिनां दिन
आंख्या में बसता
हेत अर भेळप रा
सतरंगी सुपना
जका देखता म्हे
पड़तख दाईं रात्यूं!

बरस बीतग्या
आंख्यां में नीं ऊतरी
बा सुपनां आळी रात
मा थूं ही जद ई
आंवता सुपना
दिन भी बै ई हा
जकै दिनां थूं सारती काजळ
अब तो ऊगै
आंख्या में अबखायां रा पड़बाळ!