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− | माँ | + | * [[माँ]] |
− | | + | * [[सो गई है मनुजता की संवेदना ]] |
− | माँ कबीर की साखी जैसी
| + | * [[इतने आरोप न थोपो ]] |
− | तुलसी की चौपाई-सी
| + | *[[अक्षर]] |
− | माँ मीरा की पदावली-सी
| + | *[[रात की मुट्ठी]] |
− | माँ है ललित स्र्बाई-सी।
| + | *[[अहिंसा के विरबे]] |
− | | + | *[[बहते जल के साथ न बह]] |
− | माँ वेदों की मूल चेतना
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− | माँ गीता की वाणी-सी
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− | माँ त्रिपिटिक के सिद्ध सुक्त-सी
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− | लोकोक्तर कल्याणी-सी।
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− | माँ द्वारे की तुलसी जैसी
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− | माँ बरगद की छाया-सी
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− | माँ कविता की सहज वेदना
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− | महाकाव्य की काया-सी।
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− | माँ अषाढ़ की पहली वर्षा
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− | सावन की पुरवाई-सी
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− | माँ बसन्त की सुरभि सरीखी
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− | बगिया की अमराई-सी।
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− | माँ यमुना की स्याम लहर-सी
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− | रेवा की गहराई-सी
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− | माँ गंगा की निर्मल धारा
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− | गोमुख की ऊँचाई-सी।
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− | माँ ममता का मानसरोवर
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− | हिमगिरि सा विश्वास है
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− | माँ श्रृद्धा की आदि शक्ति-सी
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− | कावा है कैलाश है।
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− | माँ धरती की हरी दूब-सी
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− | माँ केशर की क्यारी है
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− | पूरी सृष्टि निछावर जिस पर
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− | माँ की छवि ही न्यारी है।
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− | माँ धरती के धैर्य सरीखी
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− | माँ ममता की खान है
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− | माँ की उपमा केवल है
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− | माँ सचमुच भगवान है।
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− | **** | + | |
− | -डॉ० जगदीश व्योम
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− | सो गई है मनुजता की संवेदना | + | |
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− | सो गई है मनुजता की संवेदना
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− | गीत के रूप में भैरवी गाइए
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− | गा न पाओ अगर जागरण के लिए
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− | कारवां छोड़कर अपने घर जाइए
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− | झूठ की चाशनी में पगी ज़िंदगी
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− | आजकल स्वाद में कुछ खटाने लगी
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− | सत्य सुनने की आदी नहीं है हवा
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− | कह दिया इसलिए लड़खड़ाने लगी
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− | सत्य ऐसा कहो, जो न हो निर्वसन
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− | उसको शब्दों का परिधान पहनाइए।
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− | काव्य की कुलवधू हाशिए पर खड़ी
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− | ओढ़कर त्रासदी का मलिन आवरण
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− | चन्द सिक्कों में बिकती रही ज़िंदगी
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− | और नीलाम होते रहे आचरण
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− | लेखनी छुप के आंसू बहाती रही
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− | उनको रखने को गंगाजली चाहिए।
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− | राजमहलों के कालीन की कोख में
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− | कितनी रंभाओं का है कुंआरा स्र्दन
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− | देह की हाट में भूख की त्रासदी
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− | और भी कुछ है तो उम्र भर की घुटन
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− | इस घुटन को उपेक्षा बहुत मिल चुकी
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− | अब तो जीने का अधिकार दिलवाइए।
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− | भूख के प'श्न हल कर रहा जो उसे
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− | है जरूरत नहीं कोई कुछ ज्ञान दे
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− | कर्म से हो विमुख व्यक्ति गीता रटे
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− | और चाहे कि युग उसको सम्मान दे
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− | ऐसे भूले पथिक को पतित पंक से
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− | खींच कर कर्म के पंथ पर लाइए।
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− | कोई भी तो नहीं दूध का है धुला
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− | है प्रदूषित समूचा ही पर्यावरण
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− | कोई नंगा खड़ा वक्त की हाट में
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− | कोई ओढ़े हुए झूठ का आवरण
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− | सभ्यता के नगर का है दस्तूर ये
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− | इनमें ढल जाइए या चले आइए।
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− | -डॉ॰ जगदीश व्योम
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− | ***** | + | |
− | इतने आरोप न थोपो | + | |
− | | + | |
− | इतने आरोप न थोपो
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− | मन बागी हो जाए
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− | मन बागी हो जाए,
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− | वैरागी हो जाए
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− | इतने आरोप न थोपो.......
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− | यदि बांच सको तो बांचो
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− | मेरे अंतस की पीड़ा
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− | जीवन हो गया तरंग रहित
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− | बस पाषाणी क्रीडा
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− | मन की अनुगूंज गूंज बन-बनकर
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− | जब अकुलाती है
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− | शब्दों की लहर लहर लहराकर
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− | तपन बुझाती है
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− | ये चिनगारी फिर से न मचलकर
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− | आगी हो जाए
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− | मन बागी हो जाए
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− | इतने आरोप न थोपो..........
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− | खुद खाते हो पर औरों पर
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− | आरोप लगाते हो
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− | सिक्कों में तुम ईमान-धरम के
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− | संग बिक जाते हो
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− | आरोपों की जीवन में जब-जब
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− | हद हो जाती है
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− | परिचय की गांठ पिघलकर
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− | आंसू बन जाती है
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− | नीरस जीवन मुंह मोड़ न अब
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− | बैरागी हो जाए
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− | मन बागी हो जाए
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− | इतने आरोप न थोपो.........
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− | | + | |
− | आरोपों की विपरीत दिशा में
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− | चलना मुझे सुहाता
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− | सपने में भी है बिना रीढ़ का
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− | मीत न मुझको भाता
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− | आरोपों का विष पीकर ही तो
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− | मीरा घर से निकली
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− | लेखनी निराला की आरोपी
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− | गरल पान कर मचली
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− | ये दग्ध हृदय वेदनापथी का
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− | सहभागी हो जाए
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− | मन बागी हो जाए
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− | इतने आरोप न थोपो .........
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− | क्यों दिए पंख जब उड़ने पर
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− | लगवानी थी पाबंदी
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− | क्यों रूप वहां दे दिया जहां
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− | बस्ती की बस्ती अंधी
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− | जो तर्क बुद्धि से दूर बने रह
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− | करते जीवन क्रीड़ा
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− | वे क्या जाने सुकरातों की
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− | कैसी होती है पीड़ा
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− | जीवन्त बुद्धि वेदनापूत की
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− | अनुरागी हो जाए
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− | मन बागी हो जाए
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− | इतने आरोप न थोपो.......
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− | -डॉ॰ जगदीश व्योम
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− | ***** | + | |
− | अक्षर | + | |
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− | अक्षर कभी क्षर नहीं होता
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− | इसीलिए तो वह 'अक्षर' है
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− | क्षर होता है तन
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− | क्षर होता है मन
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− | क्षर होता है धन
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− | क्षर होता है अज्ञान
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− | क्षर होता है
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− | मान और सम्मान
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− | परंतु नहीं होता है कभी क्षर
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− | 'अक्षर'
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− | इसलिए
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− | अक्षरों को जानो
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− | अक्षरों को पहचानो
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− | अक्षरों को स्पर्श करो
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− | अक्षरों को पढ़ो
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− | अक्षरों को लिखो
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− | अक्षरों की आरसी में
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− | अपना चेहरा देखो
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− | इन्हीं में छिपा है
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− | तुम्हारा नाम
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− | तुम्हारा ग्राम
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− | और तुम्हारा काम
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− | सृष्टि जब समाप्त हो जाएगी
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− | तब भी रह जाएगा 'अक्षर'
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− | क्यों कि 'अक्षर' तो ब्रह्म है
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− | और भला
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− | ब्रह्म भी कहीं मरता है?
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− | आओ! बांचें
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− | ब्रह्म के स्वरूप को
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− | सीखकर अक्षर
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− | -डॉ॰ जगदीश व्योम
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− | **** | + | |
− | रात की मुठ्ठी | + | |
− | | + | |
− | वक्त का आखेटक
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− | घूम रहा है
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− | शर संधान किए
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− | लगाए है टकटकी
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− | कि हम
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− | करें तनिक सा प्रमाद
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− | और, वह
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− | दबोच ले हमें
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− | तहस नहस कर दे
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− | हमारे मिथ्याभिमान को
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− | पर
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− | आएगा सतत नैराश्य ही
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− | उसके हिस्से में
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− | क्यों कि
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− | हमने पहचान ली है
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− | उसकी पगध्वनि
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− | दूर हो गया है
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− | हमसे
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− | हमारा तंद्रिल व्यामोह
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− | हम ने पढ़ लिए हैं
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− | समय के पंखों पर उभरे
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− | पुलकित अक्षर
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− | जिसमें लिखा है कि-
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− | आओ!
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− | हम सब मिल कर
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− | खोलें,
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− | रात की मुठ्ठी को
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− | जिसमें कैद है
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− | समूचा सूरज।
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− | -डॉ॰ जगदीश व्योम
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− | ***** | + | |
− | अहिंसा के बिरवे | + | |
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− | चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।
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− | बहुत लहलही आज हिंसा की फसलें
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− | प्रदूषित हुई हैं धरा की हवाएँ।
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− | चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।।
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− | बहुत वक़्त बीता कि जब इस चमन में
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− | अहिंसा के बिरवे उगाए गए थे
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− | थे सोये हुए भाव जर्नमन में गहरे
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− | पवन सत्य द्वारा जगाये गये थे,
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− | बने वृक्ष, वर्टवृक्ष, छाया घनेरी
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− | धरा जिसको महसूसती आज तक है
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− | उठीं वक़्त की आँधियाँ कुछ विषैली
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− | नियति जिसको महसूसती आज तक है,
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− | नहीं रख सके हम सुरक्षित धरोहर
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− | अभी वक़्त है, हम अभी चेत जाएँ।
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− | चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।।
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− | नहीं काम हिंसा से चलता है भाई
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− | सदा अंत इसका रहा दु:खदाई
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− | महावीर, गाँधी ने अनुभव किया, फिर
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− | अहिंसा की सीधी डगर थी बताई
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− | रहे शुद्ध-मन, शुद्ध-तन, शुद्ध-चिंतन
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− | अहिंसा के पथ की यही है कसौटी
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− | दुखद अन्त हिंसा का होता हमेशा
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− | सुखद खूब होती अहिंसा की रोटी
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− | नई इस सदी में, सघन त्रासदी में
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− | नई रोशनी के दिये फिर जलाएँ।
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− | चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।
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− | -र्डॉ० जगदीश 'व्योम'
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− | ***** | + | |
− | बहते जल के साथ न बह | + | |
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− | गजल
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− | बहते जल के साथ न बह
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− | कोशिश करके मन की कह।
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− | मौसम ने तेवर बदले
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− | कुछ तो होगी खास बज़ह।
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− | कुछ तो खतरे होंगे ही
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− | चाहे जहाँ कहीं भी रह।
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− | लोग तूझे कायर समझें
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− | इतने अत्याचार न सह।
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− | झूठ कपट मक्कारी का
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− | चारण बनकर गजल न कह।
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− | -डॉ॰ जगदीश व्योम
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