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"भले जलसों में आकर के ज़बानें खूब चलती हैं / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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16:16, 13 जुलाई 2017 का अवतरण

भले जलसों में आकर के ज़बानें खूब चलती हैं।
मगर अन्दर की मेरे खामियाँ दावे से रहती हैं।

तुम्हारी ओर तो मैं एक ही उँगली उठाता हूँ,
मगर मेरी तरफ तब उँगलियाँ भी चार उठती हैं।

अरे, वो मक्खियाँ हैं जो कहीं भी बैठ जाती है,
मगर ये तितलियाँ हैं जो गुलों के पास उड़ती है।

भरे नालों को अपने आप पर धोखा हुआ लेकिन,
ये नदियाँ हैं जो नालों से न घटती हैं, न बढ़ती हैं।

चलो माना कि इन पत्तों की क़ीमत कुछ नहीं फिर भी,
बड़ी शाख़ें इन्हीं पत्तों के अन्दर छुप के रहती हैं।