भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हम उजाले का सफ़र तय इस तरह करते रहे / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=डी. एम. मिश्र |संग्रह=उजाले का सफर /...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
पंक्ति 19: पंक्ति 19:
  
 
फूल हैं, काँटे भी  हैं, शीशे भी हैं, पत्थर भी हैं,
 
फूल हैं, काँटे भी  हैं, शीशे भी हैं, पत्थर भी हैं,
पॉव भी बढ़ते रहे, पथ भी नये बनते रहे।
+
पाँव भी बढ़ते रहे, पथ भी नये बनते रहे।
  
 
गीत, कविता या ग़ज़ल केवल बहाना दोस्तो,
 
गीत, कविता या ग़ज़ल केवल बहाना दोस्तो,
 
आदमी से, आदमी की बात हम करते रहे।
 
आदमी से, आदमी की बात हम करते रहे।
 
</poem>
 
</poem>

11:27, 5 अगस्त 2017 का अवतरण

हम उजाले का सफ़र तय इस तरह करते रहे।
धूप में उगते रहे, खिलते रहे, तपते रहे।

घिर गयी संवेदना जब भीड़ आहों की बढ़ी,
बंद कमरे में अकेले गीत हम रचते रहे।

आदमी के रूप में अनुभूति क्यों इतनी मिली,
अश्रु से अपने नयन की दृष्टि हम धुलते रहे।

ज़िंदगी में कुछ न कुछ आवारगी भी चाहिए,
ग़म-खुशी के द्वन्द्व में जो पड़ गये पिसते रहे।

फूल हैं, काँटे भी हैं, शीशे भी हैं, पत्थर भी हैं,
पाँव भी बढ़ते रहे, पथ भी नये बनते रहे।

गीत, कविता या ग़ज़ल केवल बहाना दोस्तो,
आदमी से, आदमी की बात हम करते रहे।