भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मन किसी का क्या पता कितना है गहरा / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=डी. एम. मिश्र |संग्रह=उजाले का सफर /...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
<poem> | <poem> | ||
मन किसी का क्या पता कितना है गहरा। | मन किसी का क्या पता कितना है गहरा। | ||
− | आइने के सामने चेहरा | + | आइने के सामने चेहरा क्यों उतरा। |
देखते ही देखते ये क्या हुआ है, | देखते ही देखते ये क्या हुआ है, |
15:09, 5 अगस्त 2017 का अवतरण
मन किसी का क्या पता कितना है गहरा।
आइने के सामने चेहरा क्यों उतरा।
देखते ही देखते ये क्या हुआ है,
मेरी उल्फ़त का कभी था रँग सुनहरा।
इश्क को अंजाम तक आते है देखा,
चार दिन में ही नशा उसका है उतरा।
ऐ ख़ुदा इतनी ही मेरी आरजू है,
हसरतों पे हो किसी का भी न पहरा।
अब किसे आवाज़ देकर हम जगायें,
अब तो यह सारा जहां लगता है बहरा।