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"ख़्वाब सब के महल बँगले हो गये / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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पोखरों की भाँति छिछले हो गये।
 
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इक ज़माना घर से निकले हो गये।
 
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16:16, 23 अगस्त 2017 का अवतरण

ख़्वाब सब के महल बँगले हो गये
ज़िंदगी के बिंब धुँघले हो गये।

दृष्टि सोने और चाँदी की जहाँ
भावना के मोल पहले हो गये।

उस जगह से मिट गयीं अनुभूतियाँ
जिस जगह के चाम उजले हो गये।

बादलों को जो चले थे सोखने
पोखरों की भाँति छिछले हो गये।

कौन पहचानेगा मुझको गाँव में
इक ज़माना घर से निकले हो गये।