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"गुज़र जाते हैं जो लम्हे वो केवल याद आते हैं / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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यही होता रहा है और आगे भी यही होगा,
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नये पत्ते निकलते हैं, पुराने सूख जाते हैं।
 
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इसे बदकिस्मती  मानें कि अपनी ख़ामियाँ समझें,
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निकल जाता समय जब हाथ से तो छटपटाते हैं।
 
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स्वयं को आदमी कितना चतुर, काबिल समझता है,
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मुसीबत के बिना भगवान  किसको याद आते हैं।
 
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भले कितना बड़ा है वो मगर इन्सान ही तो है,
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ख़ुदा के सामने केवल हम अपना सर झुकाते हैं।
 
ख़ुदा के सामने केवल हम अपना सर झुकाते हैं।
 
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17:27, 23 अगस्त 2017 के समय का अवतरण

गुज़र जाते हैं जो लम्हे वो केवल याद आते हैं
नये जब यार बनते हैं, पुराने भूल जाते हैं।

यही होता रहा है और आगे भी यही होगा
नये पत्ते निकलते हैं, पुराने सूख जाते हैं।

इसे बदकिस्मती मानें कि अपनी ख़ामियाँ समझें
निकल जाता समय जब हाथ से तो छटपटाते हैं।

स्वयं को आदमी कितना चतुर, काबिल समझता है
मुसीबत के बिना भगवान किसको याद आते हैं।

भले कितना बड़ा है वो मगर इन्सान ही तो है
ख़ुदा के सामने केवल हम अपना सर झुकाते हैं।