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"मेरे मित्र / रामनरेश पाठक" के अवतरणों में अंतर

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अधजली सिगरेट सी इस  
 
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मूर्ती मेरी तैरती सहसा नज़र के सामने  
 
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तुमको पत्र लिखने लग गया हूँ  
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कायल हूँ तुम्हारी नेकनीयत औ'
 
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रफूगर ने तुम्हारी ही गरेवाँ टाक पर रख दी,
 
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बताओ क्या कभी ठोकर तुम्हें बेचैन कर देती नहीं है  
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बताओ क्या कभी ठोकर तुम्हें बेचैन कर देती नहीं है ?
दिल तुम्हारा उचटता है ही नहीं कब भी  
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दिल तुम्हारा उचटता है ही नहीं कब भी ?
कलम हरदम पकड़ में ही रहा करती  
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बहकती नहीं है  
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प्रश्न इतने हैं  
 
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मगर उत्तर सदा सा साधा सा तुम  
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पूजो आदमी को
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"पूजो आदमी को
 
राजनीतिक दाँव पेंचों में नहीं इंसान बंधता  
 
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मुहब्बत ही ख़ुदा है  
 
मुहब्बत ही ख़ुदा है  
वही मजहब, वही भगवान जो पूजा सीखाता हो,
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घ्रीना का पाठ रटवाता नहीं हो,
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आदमी हन्दू मुसलमान पारसी ईसाई  
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तो कतई नहीं, वह आदमी है बस,
 
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करो पूजा, मुहब्बत भी इसी हमशक्ल की
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शायद भूल तुम गए हो  
 
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सजा इस आदमी को पूजने की
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बुद्ध को खाना पड़ा मांस  
 
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और गांधी को विषैली गोलियां  
 
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मंसूर को ज़िन्दा जलाया था गया !!!
 
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फिर भी कह रहे हो आदमी को पूजने की बात ?
 
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खैर, छोड़ो, जल गयी सिगरेट,
 
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भाभी को मेरा आदाब कह देना  
 
भाभी को मेरा आदाब कह देना  
 
और मुन्नू की उधम की, खैरियत की खबर देना,
 
और मुन्नू की उधम की, खैरियत की खबर देना,

16:25, 1 सितम्बर 2017 के समय का अवतरण

मेरे मित्र,
रात आये थे सुना मिलने
मगर दुर्भाग्य ! हम तुम मिल न पाए,
बज गए थे आठ

अधजली सिगरेट सी इस
ज़िन्दगी को राख पर बादल विचारों के घुमड़ते जा रहे हैं
मूर्ती मेरी तैरती सहसा नज़र के सामने
मुसका उठी है और
तुमको पत्र लिखने लग गया हूँ

कायल हूँ तुम्हारी नेकनीयत औ'
शराफत सी भरी तस्वीर,
सोचता हूँ: क्या कभी कुछ गैर इंसानी ख्यालों में
तुम्हारी कलम या तुम खुद भुला जाते नहीं हो ?
तुम्हारे गीत में धढ़कन दिलों को, तार की झंकार,
औ' इंसानियत का दर्द उभरा है,
तुम भी मानते होगे-
वही कविता बड़ी जिसकी रगों में दौड़ता
लोहू मोहब्बत का,
वही सच्ची कला, साहित्य
जिसमें मनुज पुत्रों के लिए
मरहम नुमायाँ हो, संवेदना हो, प्रेम हो,
सौन्दर्य हो.

मगर तुमने सदा ही कांट बीने हैं,
रफूगर ने तुम्हारी ही गरेवाँ टाक पर रख दी,
बताओ क्या कभी ठोकर तुम्हें बेचैन कर देती नहीं है ?
दिल तुम्हारा उचटता है ही नहीं कब भी ?
कलम हरदम पकड़ में ही रहा करती ?
बहकती नहीं है ?
प्रश्न इतने हैं
मगर उत्तर सदा-सा साधा-सा तुम
स्वयं दे जाते--

"पूजो आदमी को
राजनीतिक दाँव पेंचों में नहीं इंसान बंधता
मुहब्बत ही ख़ुदा है
वही मजहब, वही भगवान जो पूजा सीखाता हो,
घृणा का पाठ रटवाता नहीं हो,
आदमी हन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई
तो कतई नहीं, वह आदमी है बस,
करो पूजा, मुहब्बत भी इसी हमशक्ल की"
मगर ऐ दोस्त,
शायद भूल तुम गए हो
सजा इस आदमी को पूजने की--
बुद्ध को खाना पड़ा मांस
ईसा को पड़ी शूली, और
उस सुकरात को पीना पड़ा था जहर
और गांधी को विषैली गोलियां
मंसूर को ज़िन्दा जलाया था गया !!!
आँखों से देखी सुनी है औ'
तवारीख के सबक भी याद हैं तुमको
फिर भी कह रहे हो आदमी को पूजने की बात ?
मगर तुम फिर कहोगे 'आदमी पूजो'

तुम्हारी अक्ल सीधी है,
मान लेता हूँ तुम्हारी,
मानता आया सदा जग
तुम्ही कुछ बददिमागों की पढाई और रटाई बात,
एक उत्तर और दो तुम
आज की दुनियाँ हमारी
कौन, मजहब, औ सियासी कैम्प में
बँटती, बिखरती, टूटती देती दिखाई है.
मुहब्बत का, मुरव्वत का कोई खेमा
नज़र आता नहीं है क्यों
जहाँ मानव चैन से कोई सांस ले पाता
जहाँ एटम बम नहीं, मुस्कान की बरसा हुआ करती,
वेद और कुरआन के बदले
मुहब्बत के सबक होते,
किसी तलवार के बदले किसी की बांसुरी बजती,
कुदरत और धरती, ज़िन्दगी औ रूह
सब कुछ खुशनुमा होती,
बस एक ही नगमा दिलों के तार पर बजता
सभी मिहनत मशक्कत से कमाते,
साथ बैठे कूटकर खाते,
सभी होते बराबर,
औ' सभी भाई-बहन होते
स्यात चुप्पी साध लोगे,
क्योंकि ऐसे प्रश्न पर अब
कलम चुप है, कला चुप, साहित्य मालता हाथ बैठा है !!!

खैर, छोड़ो, जल गयी सिगरेट,
ख़त लम्बा हुआ, चाय ठंडी पड़ गयी
भाभी को मेरा आदाब कह देना
और मुन्नू की उधम की, खैरियत की खबर देना,
प्यार की मीठी थपकियाँ दो लगा देना
तुम्हें कंठ आश्लेष, मृदुल, मसृण स्नेह,
तेरी कमल को एक लम्बी ज़िन्दगी की उम्र
मैं तुम्हारा सदा केवल-अभिन्न !