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"प्रकृति हूँ मैं ही / जया पाठक श्रीनिवासन" के अवतरणों में अंतर

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तो तुम्हे लगता है-
कि तुम प्रयोजन हो?
जानते हो -
कड़ी दर कड़ी
बढ़ती है
प्रकृति
ओज से भरी
अमृत से लबालब
विकसित फूलों की क्यारी सी
जिसमें
आते हो तुम
भटकते - भ्रमर से
इधर उधर
और बीजते हो
अगली फूलों की जमात
तुम्हारा आना और जाना यह
पल भर का
मेरी अनादी-अनंत की गति में
रह जाता
एक बिंदु मात्र
फिर भी,
तुम्हारी उम्र से नापकर
विधाता से
मांगती हूँ हमेशा
अपने लिए कुछ कम घड़ियाँ

जाने क्यों
लगता है मुझे भी
अक्सर
कि, तुम ही प्रयोजन हो !