"तुम मुझे प्रिय हो कवि / सुरेश चंद्रा" के अवतरणों में अंतर
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− | प्रिय कवि | + | प्रिय कवि |
− | नहीं होती एक कोई, रचना सर्वोत्तम | + | नहीं होती एक कोई, रचना सर्वोत्तम |
− | + | न ही होता, सर्वश्रेष्ठ कोई एक कवि | |
तुम मुझे प्रिय हो कवि ... | तुम मुझे प्रिय हो कवि ... | ||
− | समूचे के समूचे, अंतर यातना में | + | समूचे के समूचे, अंतर यातना में |
− | अपने विषय, विश्लेषण, विवेचना | + | अपने विषय, विश्लेषण, विवेचना में |
− | प्रबोधक-प्रहार या प्रपंच-परिक्रमा | + | प्रबोधक-प्रहार या प्रपंच-परिक्रमा में |
− | + | द्वंद, संताप, पश्ताचाप, प्रार्थना में | |
− | निश्चिन्त रहो कवि | + | निश्चिन्त रहो कवि |
− | तुम्हारे शब्दों से पृथक | + | तुम्हारे शब्दों से पृथक |
− | मैं समझता हूँ, तुम्हें | + | मैं समझता हूँ, तुम्हें |
− | + | आखर-आखर धुंध में | |
− | विलीन होती | + | विलीन होती |
− | अभिव्यक्ति तुम्हारी | + | अभिव्यक्ति तुम्हारी |
− | अपेक्षाओं के नभ | + | अपेक्षाओं के नभ में |
− | और 'होम | + | और'होम होते हुए तुम |
− | शब्द-शब्द आत्म-संज्ञान | + | शब्द-शब्द आत्म-संज्ञान में |
− | सच है, कवि | + | सच है, कवि |
− | शब्द केवल, उत्प्रेरक हैं | + | शब्द केवल, उत्प्रेरक हैं |
− | + | मर्म, समवेदनाएँ, सहानुभूति, सिहरन तक | |
− | क्षणभंगुरता के पार | + | क्षणभंगुरता के पार |
− | शब्द अंततः इन्द्रजाल हैं | + | शब्द अंततः इन्द्रजाल हैं |
− | + | कलम की नोक पर सतत समग्र सवाल हैं | |
− | तुम मुझे प्रिय हो कवि | + | तुम मुझे प्रिय हो कवि |
− | किंचित मुझसे ही तो हो तुम | + | किंचित मुझसे ही तो हो तुम |
− | आतुर, आशंकित, आकुल | + | आतुर, आशंकित, आकुल |
− | अविराम, व्यथित, व्याकुल | + | अविराम, व्यथित, व्याकुल |
− | शांत, स्थिर, तृप्त, मृदुल | + | शांत, स्थिर, तृप्त, मृदुल |
− | + | एक ही समय में, लय में | |
− | साधु, शैतान, सब्र, और संकीर्णता से | + | साधु, शैतान, सब्र, और संकीर्णता से |
− | निबटते हुए, निजता से, कुशलता से | + | निबटते हुए, निजता से, कुशलता से |
− | अपने भीतर के सब किवाड़ धकेल कर | + | अपने भीतर के सब किवाड़ धकेल कर |
− | + | निकल आते हो, संदिग्ध सरलता से | |
− | प्रयास का सम्मान बड़ा होता है | + | प्रयास का सम्मान बड़ा होता है |
− | तुम शब्दों से कितना ही गहरा | + | तुम शब्दों से कितना ही गहरा |
− | कोहरा, भेद दो, रचो कालजयी | + | कोहरा, भेद दो, रचो कालजयी |
− | + | मुझे सदैव तुम्हारा, तुम्हारे भीतर से | |
− | उबर आने का प्रयास प्रिय है | + | उबर आने का प्रयास प्रिय है |
− | मुझे प्रिय हूँ मैं, और | + | मुझे प्रिय हूँ मैं, और |
− | + | तुम मुझे प्रिय हो कवि. | |
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13:39, 20 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण
प्रिय कवि
नहीं होती एक कोई, रचना सर्वोत्तम
न ही होता, सर्वश्रेष्ठ कोई एक कवि
तुम मुझे प्रिय हो कवि ...
समूचे के समूचे, अंतर यातना में
अपने विषय, विश्लेषण, विवेचना में
प्रबोधक-प्रहार या प्रपंच-परिक्रमा में
द्वंद, संताप, पश्ताचाप, प्रार्थना में
निश्चिन्त रहो कवि
तुम्हारे शब्दों से पृथक
मैं समझता हूँ, तुम्हें
आखर-आखर धुंध में
विलीन होती
अभिव्यक्ति तुम्हारी
अपेक्षाओं के नभ में
और'होम होते हुए तुम
शब्द-शब्द आत्म-संज्ञान में
सच है, कवि
शब्द केवल, उत्प्रेरक हैं
मर्म, समवेदनाएँ, सहानुभूति, सिहरन तक
क्षणभंगुरता के पार
शब्द अंततः इन्द्रजाल हैं
कलम की नोक पर सतत समग्र सवाल हैं
तुम मुझे प्रिय हो कवि
किंचित मुझसे ही तो हो तुम
आतुर, आशंकित, आकुल
अविराम, व्यथित, व्याकुल
शांत, स्थिर, तृप्त, मृदुल
एक ही समय में, लय में
साधु, शैतान, सब्र, और संकीर्णता से
निबटते हुए, निजता से, कुशलता से
अपने भीतर के सब किवाड़ धकेल कर
निकल आते हो, संदिग्ध सरलता से
प्रयास का सम्मान बड़ा होता है
तुम शब्दों से कितना ही गहरा
कोहरा, भेद दो, रचो कालजयी
मुझे सदैव तुम्हारा, तुम्हारे भीतर से
उबर आने का प्रयास प्रिय है
मुझे प्रिय हूँ मैं, और
तुम मुझे प्रिय हो कवि.