"हर रात, रात भर लड़ती है अपनी ही कालिख से / सुरेश चंद्रा" के अवतरणों में अंतर
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− | दिन की सिगड़ी और रात की अंगीठी पर कितनी धीमी सुलगती है उम्र | + | दिन की सिगड़ी और रात की अंगीठी पर |
+ | कितनी धीमी सुलगती है उम्र | ||
− | साँस भाप-भाप वजूद को कितने आहिस्ते घुलाती है हवा और मिट्टी की नमी में | + | साँस |
+ | भाप-भाप वजूद को | ||
+ | कितने आहिस्ते घुलाती है हवा और मिट्टी की नमी में | ||
− | कोपलों की तरह कभी मासूम खिली खिलखिलाहटें पीली ज़र्द पत्तियों की मायूसी सी खड़खड़ाने लगती हैं | + | कोपलों की तरह कभी मासूम खिली खिलखिलाहटें |
+ | पीली ज़र्द पत्तियों की मायूसी सी खड़खड़ाने लगती हैं | ||
दुनिया समझती है आप उस जैसे हैं, | दुनिया समझती है आप उस जैसे हैं, | ||
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आप लफ़्ज़ों और इशारों की रगड़ से घिस-घिस कर मन-बदन एकहरा करते जाते हैं | आप लफ़्ज़ों और इशारों की रगड़ से घिस-घिस कर मन-बदन एकहरा करते जाते हैं | ||
− | साथ जो छूट | + | साथ जो छूट चुका होता है, |
आपमें से आधा आप ले जा चुका होता है और जो साथी बिछड़ते जाते हैं, | आपमें से आधा आप ले जा चुका होता है और जो साथी बिछड़ते जाते हैं, | ||
आपको घुटन दर घुटन, परत दर परत, छीलते जाते हैं | आपको घुटन दर घुटन, परत दर परत, छीलते जाते हैं | ||
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ठीक वैसे ही जैसे, गट्ठरों भर लकड़ियाँ जल कर हल्की राख भर रह जाती हैं | ठीक वैसे ही जैसे, गट्ठरों भर लकड़ियाँ जल कर हल्की राख भर रह जाती हैं | ||
− | हर शख़्स किस्मत के कासे से एक सी | + | हर शख़्स किस्मत के कासे से एक सी कैफ़ियत आख़िर तक लेकर नहीं आता |
सूरज कभी जल्दी जल मरता है, | सूरज कभी जल्दी जल मरता है, | ||
शाम कभी तेज क़दम ढलती है | शाम कभी तेज क़दम ढलती है | ||
हर रात, | हर रात, | ||
− | रात भर लड़ती है अपनी ही | + | रात भर लड़ती है अपनी ही कालिख़ से |
और कभी-कभी दम तोड़ देती है, जल्द बहुत जल्द अँधेरे के घेरे में | और कभी-कभी दम तोड़ देती है, जल्द बहुत जल्द अँधेरे के घेरे में | ||
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मिट्टी का पुतला कितना पका पर कच्चा ही रहा | मिट्टी का पुतला कितना पका पर कच्चा ही रहा | ||
ज़रा झूठा भी था, रूठा भी था कि कहीं सच्चा भी रहा | ज़रा झूठा भी था, रूठा भी था कि कहीं सच्चा भी रहा | ||
− | कुछ बुरा बनाया गया, कुछ था भी बुरा, कुछ अच्छा भी रहा | + | कुछ बुरा बनाया गया, कुछ था भी बुरा, कुछ अच्छा भी रहा. |
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13:53, 20 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण
दिन की सिगड़ी और रात की अंगीठी पर
कितनी धीमी सुलगती है उम्र
साँस
भाप-भाप वजूद को
कितने आहिस्ते घुलाती है हवा और मिट्टी की नमी में
कोपलों की तरह कभी मासूम खिली खिलखिलाहटें
पीली ज़र्द पत्तियों की मायूसी सी खड़खड़ाने लगती हैं
दुनिया समझती है आप उस जैसे हैं,
आप समझाते हैं खुद को दुनिया आप जैसी नहीं है
दोस्त काँधे पर थपकी देकर बढ़ जाते हैं
जानने-सुनने वाले आपको नायाब नसीहत से नवाज़ जाते हैं
आप लफ़्ज़ों और इशारों की रगड़ से घिस-घिस कर मन-बदन एकहरा करते जाते हैं
साथ जो छूट चुका होता है,
आपमें से आधा आप ले जा चुका होता है और जो साथी बिछड़ते जाते हैं,
आपको घुटन दर घुटन, परत दर परत, छीलते जाते हैं
कितना कुछ सोच को परोसा जाता है भरोसा ख़त्म होने से पहले,
कितनी चोट सहती है चट्टान, चूरे का ढेर भर हो कर रह जाने के लिये
ठीक वैसे ही जैसे, गट्ठरों भर लकड़ियाँ जल कर हल्की राख भर रह जाती हैं
हर शख़्स किस्मत के कासे से एक सी कैफ़ियत आख़िर तक लेकर नहीं आता
सूरज कभी जल्दी जल मरता है,
शाम कभी तेज क़दम ढलती है
हर रात,
रात भर लड़ती है अपनी ही कालिख़ से
और कभी-कभी दम तोड़ देती है, जल्द बहुत जल्द अँधेरे के घेरे में
कहीं साफ़ निगाह से धुंधलाती आवाज़ उठती है
मिट्टी का पुतला कितना पका पर कच्चा ही रहा
ज़रा झूठा भी था, रूठा भी था कि कहीं सच्चा भी रहा
कुछ बुरा बनाया गया, कुछ था भी बुरा, कुछ अच्छा भी रहा.