भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"श्रम के दो हाथों पे / ब्रजमोहन" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ब्रजमोहन |संग्रह=दुख जोड़ेंगे हम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
{{KKCatGeet}} | {{KKCatGeet}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | + | श्रम के दो हाथों पे नाचे ये संसार रे | |
− | + | फ़ौलादी सीनों से उठते हैं जीवन के ज्वार रे ... | |
− | + | पर्वत हँसता, सागर हँसता, हँसता है तूफ़ान | |
− | + | तूफ़ानों की छाती पर चढ़ हँसता है इनसान | |
− | + | जीवन है कश्ती तो फिर श्रम है पतवार रे ... | |
− | + | ||
− | जब | + | पैसा चलता चाल हंस की जब अपनी ही भूल |
− | + | श्रम के पाँव चटाते उसको तब दुनिया की धूल | |
− | + | जीवन की भट्टी में हैं श्रम के अंगार रे ... | |
− | + | ||
− | + | श्रम के बीजों से उगती है जीवन की मुस्कान | |
− | + | श्रम की सबसे सुन्दर रचना है देखो इनसान | |
− | + | श्रम ही है निर्माता और श्रम ही संहार रे ... | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
</poem> | </poem> |
23:08, 22 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण
श्रम के दो हाथों पे नाचे ये संसार रे
फ़ौलादी सीनों से उठते हैं जीवन के ज्वार रे ...
पर्वत हँसता, सागर हँसता, हँसता है तूफ़ान
तूफ़ानों की छाती पर चढ़ हँसता है इनसान
जीवन है कश्ती तो फिर श्रम है पतवार रे ...
पैसा चलता चाल हंस की जब अपनी ही भूल
श्रम के पाँव चटाते उसको तब दुनिया की धूल
जीवन की भट्टी में हैं श्रम के अंगार रे ...
श्रम के बीजों से उगती है जीवन की मुस्कान
श्रम की सबसे सुन्दर रचना है देखो इनसान
श्रम ही है निर्माता और श्रम ही संहार रे ...