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"श्रम के दो हाथों पे / ब्रजमोहन" के अवतरणों में अंतर

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लड़ते हुए सिपाही का गीत बनो रे  
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श्रम के दो हाथों पे नाचे ये संसार रे
हारना है मौत तुम जीत बनो रे ...
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फ़ौलादी सीनों से उठते हैं जीवन के ज्वार रे ...
  
फूलों से खिलना सीखो, पँछी से उड़ना
+
पर्वत हँसता, सागर हँसता, हँसता है तूफ़ान
पेड़ों की छाँव बनके, धरती से जुड़ना
+
तूफ़ानों की छाती पर चढ़ हँसता है इनसान
पर्वत से सीखो कैसे चोटी पे चढ़ना
+
जीवन है कश्ती तो फिर श्रम है पतवार रे ...
गेहूँ के दानों-सी प्रीत बनो रे ...
+
  
जब बैठे-बैठे आँखें भर आएँ दुख से
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पैसा चलता चाल हंस की जब अपनी ही भूल
फिर सोचना दिन कैसे बीतेंगे सुख से
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श्रम के पाँव चटाते उसको तब दुनिया की धूल
दुख की लकीरें मिट जाएँगी मुख से
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जीवन की भट्टी में हैं श्रम के अंगार रे ...
सूरज-सा उगने की रीत बनो रे ...
+
  
माथे पे छलके भाई जब भी पसीना
+
श्रम के बीजों से उगती है जीवन की मुस्कान
इक पल हवाओं के भी ओठों पर जीना
+
श्रम की सबसे सुन्दर रचना है देखो इनसान
तब देखना रे कैसे फूलेगा सीना
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श्रम ही है निर्माता और श्रम ही संहार रे ...
सीने में धड़के जो संगीत बनो रे ...
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पाप का घड़ा तो आख़िर फूटेगा भाई
+
पापी किस-किस से फिर छूटेगा भाई
+
कोई लुटेरा कब तक लूटेगा भाई
+
ख़ून-पसीने के मीत बनो रे ...
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23:08, 22 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

श्रम के दो हाथों पे नाचे ये संसार रे
फ़ौलादी सीनों से उठते हैं जीवन के ज्वार रे ...

पर्वत हँसता, सागर हँसता, हँसता है तूफ़ान
तूफ़ानों की छाती पर चढ़ हँसता है इनसान
जीवन है कश्ती तो फिर श्रम है पतवार रे ...

पैसा चलता चाल हंस की जब अपनी ही भूल
श्रम के पाँव चटाते उसको तब दुनिया की धूल
जीवन की भट्टी में हैं श्रम के अंगार रे ...

श्रम के बीजों से उगती है जीवन की मुस्कान
श्रम की सबसे सुन्दर रचना है देखो इनसान
श्रम ही है निर्माता और श्रम ही संहार रे ...