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15:47, 23 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण
जब धूप जंग करती
अपने हौसले दिखाती है
तो अक्सर छाँव का एक टुकड़ा
उसे मुस्कुरा कर देता हूँ
और हथियार
छोड़ जाती है धूप
इस कदर मेरे आँगन में
कि सूरज सहम कर देखता है-
आकाश में कर्फ्यू लगा है
बिना पथराव के?
चाँद से बहस -
उसका संविधान लिखने की-
बिना प्रारूप
खीँच लाता हूँ उसे
उन हाशियों में
जहाँ प्रश्न नहीं उत्तर लिखा है?
समय को
निब की नोक पर रख
न जाने कितने हल चलाता हूँ आखरों के
कि दबी सभ्यताएँ कुनमुनाती
अपने वैधव्य से बाहर
देखती हैं कनखियों से
खोये ठाठ खंडहर पर
इतिहास का बिरवा लगा है?
क्यों जानते नहीं मुझे?
दंभ या सृजन?
प्रलय या विलय?
अस्ति या नास्ति?
मन को खंगालो
तुम्हारी संवेदनाओं की स्याही हूँ
बोलो क्या लिखना बंद करूँ?