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"ये भुजपत्र सम्मुख हैं / रामनरेश पाठक" के अवतरणों में अंतर

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काल के अणु खंड को कर दो समर्पित
यह नए इतिहास का अभिलेख
ये भुजपत्र सम्मुख हैं

यहां सृजन-वेला
जगी है उन्मृदाएँ
कहीं इनकी प्रतीक्षाएँ बुझ न जाएँ
बीज इनको दो
जन-विपंची पर प्रनर्तित सामश्रम की ऋचाओं को
स्वर नवलतर दो
कहीं इनकी प्रतीक्षाएँ बुझ न जाएँ
हेतु इनको दो

यह यजन-वेला
स्वेद, कौशल, ईहाओं की अमृत-समिधा दो
जल में, अतल में, तल तटे वे वरण-प्रस्तुत खड़ी हैं
सब सिद्धियां निधियां
वरण इनको दो
कहीं इनकी प्रतीक्षाएँ बुझ न जाएँ
करण इनको दो

सीपियों के मुख भरो मोती
उत्सवों और पर्वों को
खिली अपनी खुली थाती दो
कहीं इनकी प्रतीक्षाएँ बुझ न जाएँ
अधिकरण, नैमित्ति इनको दो,

यह हिरण-वेला
अल्पनायें उगें, पथ रँगें कुंकुम
मादल पर जगें फिर थाप
हवाएँ ले उड़े केसर, मलय वलयित करें
कहीं इनकी प्रतीक्षाएँ बुझ न जाएँ
उपकरण, निष्पत्ति इनको दो

यह अभी उपलब्धि-वेला
श्वेत शतदल खिल रहे हैं महाशंखों में
अर्घ्य अर्पित करो नूतन दीप्त सविता को
कहीं इनकी प्रतीक्षाएँ बुझ न जाएँ
शरण इनको दो
काल के अणु खंड को कर दो समर्पित
यह नए इतिहास का अभिलेख
ये भुजपत्र सम्मुख हैं