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"जाने किस कंकड़-रोड़े पर पाँव / शैलेय" के अवतरणों में अंतर

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अब और अधिक आगे चल पाना मुश्किल
 
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इसलिए इसे मैंने पैर से उतार हाथ में ले लिया है
 
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अद्भुत दृश्य है
 
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काँधे पर झोला है किन्तु
 
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जमीन पर एक पाँव चप्पल
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एक नँगा ही है
 
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यही नहीं
 
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जब तक दोनों पाँवों में चप्पल थी
 
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रास्ते की ओर तो जैसे मेरा ध्यान ही नहीं था
 
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किन्तु अब
 
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जबकि एक पाँव तले काँटे-कंकड़-पत्थर चुभ रहे हैं
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कभी समूचे देश की ओर चला जा रहा है
 
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दोनों चेहरों के बीच
 
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फँसा हुआ मेरा चेहरा
 
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निपट दोस्तों की मुझे रह-रह याद आ रही है
 
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दोस्त भी तो आख़िर अपने ही जैसे गोत्र के होते हैं
 
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इधर मेरी चप्पल का फीता टूट गया है
 
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उधर उनकी भी जिन्दगी में
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कुछ न कुछ ज़रूर ही टूट गया होगा / टूट रहा होगा
 
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यों ही न हम दोस्त
 
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कभी-कभी न चाहते हुए भी कह ही उठते हैं  
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काश! हम लोगों ने शादी नहीं की होती!
 
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मगर प्रेम!
 
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इस पर तो हम साले ऐसा मदमा उठते हैं
 
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फिर धीरे-धीरे जाने क्या हो जाता है
 
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एक उदासी हमें घेर लेती है कि
 
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एक बात तो हममें होती ही होती है
 
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हमारी कुछ कमजोरियों को लेकर हमारी पत्नियाँ
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किसी बर्र के डंक सी लाल न करें तो
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बरसों पुरानी उन आंखों का वह भीना शहद
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आज भी
 
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रह-रह कर ऐसे-ऐसे गमक उठता है कि
 
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निपट लेने का हौसला
 
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फिर से एक नई कसम बन ही जाता है।
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फिर से एक नई क़सम बन ही जाता है।
 
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17:52, 11 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

जाने किस कँकड़-रोड़े पर पाँव
ऐसा गचका खा गया
नई-नई चप्पल का फीता टूट गया है
जबकि
घर को मैं बहुत पीछे छोड़ आया हूँ
और बाज़ार अभी खासा दूर है

वापसी
अब बेमतलब की ही नहीं
ठीक भी नहीं है
क्योंक घर की अनिवार्य ज़रूरतों का सामान
लेने जो निकला हूँ
यानी
मुझे बस आगे और आगे ही बढ़ते चले जाना है

टूटी चप्पल से
अब और अधिक आगे चल पाना मुश्किल
इसलिए इसे मैंने पैर से उतार हाथ में ले लिया है

अद्भुत दृश्य है
काँधे पर झोला है किन्तु
ज़मीन पर एक पाँव चप्पल
एक नँगा ही है

यही नहीं
जब तक दोनों पाँवों में चप्पल थी
रास्ते की ओर तो जैसे मेरा ध्यान ही नहीं था
किन्तु अब
जबकि एक पाँव तले काँटे-कँकड़-पत्थर चुभ रहे हैं
ध्यान बराबर
कभी निजी घर
कभी समूचे देश की ओर चला जा रहा है

दोनों चेहरों के बीच
फँसा हुआ मेरा चेहरा
जिसे अभी कठिन बाज़ार भी करना है
लाख चाह कर भी
दोनों में से
किसी की भी तरह का नहीं हो पा रहा है
कि
निपट दोस्तों की मुझे रह-रह याद आ रही है

हालाँकि क्या कहूँ
दोस्त भी तो आख़िर अपने ही जैसे गोत्र के होते हैं
इधर मेरी चप्पल का फीता टूट गया है
उधर उनकी भी ज़िन्दगी में
कुछ न कुछ ज़रूर ही टूट गया होगा / टूट रहा होगा
यों ही न हम दोस्त
कभी-कभी न चाहते हुए भी कह ही उठते हैं --
काश! हम लोगों ने शादी नहीं की होती!

मगर प्रेम!
इस पर तो हम साले ऐसा मदमा उठते हैं
जैसे कि
हमारा तो जन्म ही बस इसी के लिए हुआ
फिर धीरे-धीरे जाने क्या हो जाता है
एक उदासी हमें घेर लेती है कि
अपने से ज़्यादा खीझ
भला, और किस पर आए

किन्तु
बिछड़ते-बिछड़ते भी
एक बात तो हममें होती ही होती है
बशर्ते कि
हमारी कुछ कमज़ोरियों को लेकर हमारी पत्नियाँ
हमारे कानों को
किसी बर्र के डंक-सी लाल न करें तो
हमारी आहों में
बरसों पुरानी उन आँखों का वह भीना शहद

आज भी
जब-तब
रह-रह कर ऐसे-ऐसे गमक उठता है कि
कोई भी बाज़ार हो
कोई भी सरकार
निपट लेने का हौसला
फिर से एक नई क़सम बन ही जाता है।