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कुछ सुगन्धों की अभी-अभी यहाँ कहीं रहे होने की प्रवृत्ति
सम्भवतः उनकी क्षण-भँगुरता में निहित है। और यह
क्षण-भँगुरता सुगन्ध होने की उनकी ललक में। और इस
ललक की क्या कहें? एक सुगन्ध विशेष के प्रसँग में यह
अभी-अभी यहाँ थी, अब नहीं है।
कुछ सुगन्धें जाल में नहीं आतीं। विस्मृति से भी परे कुछ
विशुद्ध दर्पण हैं। कुछ स्वप्न में जीती हैं। कुछ स्वप्न लेती
हैं। कुछ वे हैं जो एक द्वार पर दस्तक देती हैं, किसी अन्य
दर्पण में, कहीं
जब हम कहते हैं:
वह यहाँ, यहाँ और यहाँ से गुज़रा होगा
यह उसकी अनधुली कमीज़ है
हवा
इधर बहती थी, फिर उधर