"सुगना मुण्डा की बेटी-4 / अनुज लुगुन" के अवतरणों में अंतर
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जरा सोचो! | जरा सोचो! | ||
वह पहाड़ जिसकी पूजा से बसन्त खिल उठता है | वह पहाड़ जिसकी पूजा से बसन्त खिल उठता है | ||
− | उसे | + | उसे दफ़ना दिया जाए तो |
सूरज क्यों न अपनी दिशा खो दे | सूरज क्यों न अपनी दिशा खो दे | ||
− | सूरज क्यों न क्रोधित हो | + | सूरज क्यों न क्रोधित हो जाए |
उसकी उस सीढ़ी को उसके | उसकी उस सीढ़ी को उसके | ||
− | रास्ते से हटा दिया | + | रास्ते से हटा दिया जाए तो |
क्यों न वह आग उगलेगा। | क्यों न वह आग उगलेगा। | ||
− | + | ||
सहजीविता की समझ ही ज्ञान है | सहजीविता की समझ ही ज्ञान है | ||
− | + | सम्वेदनाओं, अनुभूतियों की पहचान ही ज्ञान है | |
ज्ञान प्रतिस्पर्धा नहीं प्रेम सिखाता है | ज्ञान प्रतिस्पर्धा नहीं प्रेम सिखाता है | ||
प्रकृति और मनुष्य | प्रकृति और मनुष्य | ||
मनुष्य और प्रकृति की सहजीविता | मनुष्य और प्रकृति की सहजीविता | ||
− | समूह में | + | समूह में सम्भव है |
इसे सींचना पड़ता है | इसे सींचना पड़ता है | ||
अब यह तुम सबका दायित्व है कि | अब यह तुम सबका दायित्व है कि | ||
इसका बीजारोपण आगामी पीढ़ी में करो, | इसका बीजारोपण आगामी पीढ़ी में करो, | ||
+ | |||
ज्यों-ज्यों इसके बीज | ज्यों-ज्यों इसके बीज | ||
− | + | अँकुरित होंगे, पुष्पित होंगे, फलित होंगे | |
− | त्यों-त्यों बाघ पर | + | त्यों-त्यों बाघ पर अँकुश लगेगा |
और तब ही रोग निवारण के लिए | और तब ही रोग निवारण के लिए | ||
औषधियों का अस्तित्व रहेगा | औषधियों का अस्तित्व रहेगा | ||
− | उसी के अस्तित्व से | + | उसी के अस्तित्व से नियन्त्रित होंगे प्राकृत-अप्राकृत बाघ’’ |
+ | |||
डोडे की बातों से | डोडे की बातों से | ||
सातों जनों के मन में लहर उठती | सातों जनों के मन में लहर उठती | ||
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कभी अचानक ही उसकी लौ दहक उठती | कभी अचानक ही उसकी लौ दहक उठती | ||
वैद्य कहते जाते और | वैद्य कहते जाते और | ||
− | परीक्षार्थियों के चेहरे की | + | परीक्षार्थियों के चेहरे की भँगिमा को भी परखते जाते |
− | और उनकी भौंहों की | + | और उनकी भौंहों की रेखाएँ सिकुड़ती-फैलती जाती |
‘क्या सातों जन सफल होंगे | ‘क्या सातों जन सफल होंगे | ||
या फिर कोई एक-दो ही | या फिर कोई एक-दो ही | ||
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तो क्या उनके जीवन की साध अधूरी रह जाएगी? | तो क्या उनके जीवन की साध अधूरी रह जाएगी? | ||
एक साथ सात जनों की सफलता की साध | एक साथ सात जनों की सफलता की साध | ||
− | जो अब तक | + | जो अब तक सम्भव नहीं हुआ है उनके गुड़ी की दुनिया में? |
+ | |||
परिस्थितियों की प्रस्तुति | परिस्थितियों की प्रस्तुति | ||
और उसके सन्दर्भों की व्याख्या कर | और उसके सन्दर्भों की व्याख्या कर | ||
− | |||
गुड़ी परीक्षा के लिए आवश्यक निर्देश देते हुए | गुड़ी परीक्षा के लिए आवश्यक निर्देश देते हुए | ||
− | डोडे वैद्य ने फिर कहना शुरू | + | डोडे वैद्य ने फिर कहना शुरू किया — |
+ | |||
‘‘घनी काली रात | ‘‘घनी काली रात | ||
इतनी काली कि | इतनी काली कि | ||
पंक्ति 63: | पंक्ति 66: | ||
केवल प्रतीति हो किसी आकृति के उभरने की | केवल प्रतीति हो किसी आकृति के उभरने की | ||
मिथ्या और भ्रम उत्पन्न करने वाली | मिथ्या और भ्रम उत्पन्न करने वाली | ||
− | ऐसी ही काली | + | ऐसी ही काली अन्धेरी रात में उभरती |
आकृतियों को पहचानने की परीक्षा है यह, | आकृतियों को पहचानने की परीक्षा है यह, | ||
+ | |||
आदमी को आदमी और | आदमी को आदमी और | ||
बाघ को बाघ के रूप में | बाघ को बाघ के रूप में | ||
पहचानने की क्षमता आती है | पहचानने की क्षमता आती है | ||
उसके व्यवहार के अतिरिक्त | उसके व्यवहार के अतिरिक्त | ||
− | जीवन अनुभवों के साथ | + | जीवन-अनुभवों के साथ |
इतिहास, दर्शन और विज्ञान की भी पड़ताल से | इतिहास, दर्शन और विज्ञान की भी पड़ताल से | ||
हमारे लिए रात का आशय | हमारे लिए रात का आशय | ||
पंक्ति 80: | पंक्ति 84: | ||
बल्कि व्यवस्था रूपायित रोग से भी है, | बल्कि व्यवस्था रूपायित रोग से भी है, | ||
यही विचार गितिः ओड़ाः, धुमकुड़िया, घोटुल | यही विचार गितिः ओड़ाः, धुमकुड़िया, घोटुल | ||
− | और पड़हा के | + | और पड़हा के गणतन्त्र का विस्तार करेगा |
− | सहधर्मियों को अपने | + | सहधर्मियों को अपने सँघर्ष में |
शामिल होने का अवसर देगा | शामिल होने का अवसर देगा | ||
− | + | अन्धेरे के साम्राज्य के समूल नाश के लिए | |
− | सहधर्मियों के | + | सहधर्मियों के सँघर्ष का साथ होना ज़रूरी है’’ |
+ | |||
उनके सामने धुअन की | उनके सामने धुअन की | ||
महक उड़ती रही | महक उड़ती रही | ||
उसके नशे में जैसे वहाँ सब धीरे-धीरे | उसके नशे में जैसे वहाँ सब धीरे-धीरे | ||
मदहोश हो रहा था | मदहोश हो रहा था | ||
− | कुछ पल आँखों को और | + | कुछ पल आँखों को और गम्भीरता से मीचते हुए डोडे ने कहा |
‘‘जैसे ‘अहद् सिंग’ को लाँघने के बाद | ‘‘जैसे ‘अहद् सिंग’ को लाँघने के बाद | ||
मनुष्य घर का रास्ता भूल | मनुष्य घर का रास्ता भूल | ||
− | |||
नदी, पहाड़, जंगलों में | नदी, पहाड़, जंगलों में | ||
वर्तमान से इतर यथार्थ की दुनिया में पहुँच जाता है | वर्तमान से इतर यथार्थ की दुनिया में पहुँच जाता है | ||
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यहीं से तुम्हें मिलेगी | यहीं से तुम्हें मिलेगी | ||
रोग के कारक और निवारक को पहचानने की शक्ति, | रोग के कारक और निवारक को पहचानने की शक्ति, | ||
+ | |||
और जब तुम लौटोगे | और जब तुम लौटोगे | ||
उस अवास्तविक-वास्तविक दुनिया से, तो होगी | उस अवास्तविक-वास्तविक दुनिया से, तो होगी | ||
− | + | नई सुबह, नई दिशाएँ, और नया जीवन | |
तुम सात जन होगे सात जीवन | तुम सात जन होगे सात जीवन | ||
सात अनुभव, सात ज्ञान, | सात अनुभव, सात ज्ञान, | ||
लेकिन तब तक रास्ते में होंगे | लेकिन तब तक रास्ते में होंगे | ||
− | + | ज़हरीले साँप, कीड़े-कॉक्रोच | |
− | रेत, दलदल, | + | रेत, दलदल, तूफ़ान, विस्फोट |
− | और | + | और भयावह परिस्थितियाँ |
तुम्हें इन सबसे लड़ना ही होगा, | तुम्हें इन सबसे लड़ना ही होगा, | ||
+ | |||
अब मैं यह लाठी धरता हूँ | अब मैं यह लाठी धरता हूँ | ||
− | + | मन्तर शुरू करता हूँ | |
− | + | मन्तर नहीं, यह गीत गाता हूँ | |
+ | |||
‘‘तन मन जन | ‘‘तन मन जन | ||
− | को घेरे हैं | + | को घेरे हैं ज़हरीले फन |
पेड़ पहाड़ तितली जुगनू | पेड़ पहाड़ तितली जुगनू | ||
सभी सहजीवी होंगे मृत | सभी सहजीवी होंगे मृत | ||
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जब होगी बिषधर | जब होगी बिषधर | ||
सुनो सपेरे स्याह सवेरे | सुनो सपेरे स्याह सवेरे | ||
− | |||
कैसे तोड़ोगे विष के घेरे | कैसे तोड़ोगे विष के घेरे | ||
सात जनों की सात कथा | सात जनों की सात कथा | ||
रहेगी तब तक यही व्यथा | रहेगी तब तक यही व्यथा | ||
तन की, मन की, जन की’’ | तन की, मन की, जन की’’ | ||
+ | |||
अरे, यह क्या? | अरे, यह क्या? | ||
− | + | मन्तर का असर होता है | |
नहीं गीत ही जीवन में घुलता है | नहीं गीत ही जीवन में घुलता है | ||
जीवन रूपायित होता है गीत में, | जीवन रूपायित होता है गीत में, | ||
− | देखो, पहला ध्यानस्थ देखता | + | |
− | + | देखो, पहला ध्यानस्थ देखता है — | |
− | की | + | ‘‘नृतत्वशास्त्री खेत में फ़सलों |
− | वे एक | + | की क़िस्मों को अलग कर रहे हैं |
− | + | वे एक ख़ास क़िस्म की | |
+ | फ़सल की तरफ संकेत करते हुए | ||
कहते हैं कि इनकी प्रजाति एक ही है | कहते हैं कि इनकी प्रजाति एक ही है | ||
एक ही मूल के हैं ये | एक ही मूल के हैं ये | ||
− | कोल, भील, मुण्डा, | + | कोल, भील, मुण्डा, सन्थाल, गोंड, खरवार |
बैगा, मुड़िया, कोंड, कोया, पहाड़िया, | बैगा, मुड़िया, कोंड, कोया, पहाड़िया, | ||
ऐसे ही और भी सभी, | ऐसे ही और भी सभी, | ||
जिनका एक ही सहजीवी दर्शन रहा है, | जिनका एक ही सहजीवी दर्शन रहा है, | ||
− | एक | + | |
− | कि जब घुमन्तु ग्रह की ठोकर लगी थी | + | एक नृतत्वशास्त्री कहना है |
+ | कि जब घुमन्तु ग्रह की ठोकर लगी थी ज़बरदस्त | ||
ये टुकड़ों में बिखर गए | ये टुकड़ों में बिखर गए | ||
सभी दिशाओं में, सभी भौगोलिक कोनों में, | सभी दिशाओं में, सभी भौगोलिक कोनों में, | ||
वह ग्रह टूटा नहीं बल्कि | वह ग्रह टूटा नहीं बल्कि | ||
− | वह उनकी ही | + | वह उनकी ही ज़मीन पर गिरा |
और उनके आधे से अधिक | और उनके आधे से अधिक | ||
− | + | ज़मीन पर जबरन काबिज़ हो गया | |
− | अब | + | अब ज़मीन के लिए संघर्ष शुरू हुआ |
और इसके साथ ही शुरू हुआ दानवों का जन्म | और इसके साथ ही शुरू हुआ दानवों का जन्म | ||
उस ग्रह के लोग जितना | उस ग्रह के लोग जितना | ||
अपने जीतने का दावा करते | अपने जीतने का दावा करते | ||
उतना ही देवताओं और दानवों का जन्म होता गया, | उतना ही देवताओं और दानवों का जन्म होता गया, | ||
− | उस | + | |
+ | उस नृतत्वशास्त्री के पास | ||
एक युवा शोधार्थी आता है और कहता है | एक युवा शोधार्थी आता है और कहता है | ||
‘नहीं रहे अब सब एक-से | ‘नहीं रहे अब सब एक-से | ||
− | |||
एक-सा नहीं रहा उनका सहजीवी दर्शन | एक-सा नहीं रहा उनका सहजीवी दर्शन | ||
धर्म में, नस्ल में, रंग में बाँट दिए गए हैं ये | धर्म में, नस्ल में, रंग में बाँट दिए गए हैं ये | ||
ये ही नहीं, पूरी मनुष्यता ही बँटी है धरती पर’ | ये ही नहीं, पूरी मनुष्यता ही बँटी है धरती पर’ | ||
+ | |||
ज्यों-ज्यों उस ग्रह का प्रभुत्व बढ़ता गया | ज्यों-ज्यों उस ग्रह का प्रभुत्व बढ़ता गया | ||
वे अपना मूल उत्स भूलते चले गए | वे अपना मूल उत्स भूलते चले गए | ||
पंक्ति 174: | पंक्ति 184: | ||
कुछ अलग दूर उनसे लगातार संघर्ष करते रहे | कुछ अलग दूर उनसे लगातार संघर्ष करते रहे | ||
उनका यह संघर्ष आज भी जारी है | उनका यह संघर्ष आज भी जारी है | ||
+ | |||
उस ग्रह के पंजे में फँसे लोग | उस ग्रह के पंजे में फँसे लोग | ||
मनुष्य होकर भी पशुता-से प्रताड़ित हैं | मनुष्य होकर भी पशुता-से प्रताड़ित हैं | ||
पंक्ति 179: | पंक्ति 190: | ||
अपने ‘मनुष्य होने’ के दावे के साथ | अपने ‘मनुष्य होने’ के दावे के साथ | ||
उनके पंजों से बचने के लिए लड़ रहे हैं | उनके पंजों से बचने के लिए लड़ रहे हैं | ||
− | दोनों की अस्मिता पर प्रश्न | + | दोनों की अस्मिता पर प्रश्न चिह्न है |
दोनों का अस्तित्व संकट ग्रस्त है | दोनों का अस्तित्व संकट ग्रस्त है | ||
आज उस प्रभु ग्रह की जीभ | आज उस प्रभु ग्रह की जीभ | ||
− | उनकी पूरी | + | उनकी पूरी ज़मीन को |
ग्रस लेने की असीमित लालसा में है | ग्रस लेने की असीमित लालसा में है | ||
जहाँ उनकी भाषा है, इतिहास है, दर्शन है | जहाँ उनकी भाषा है, इतिहास है, दर्शन है | ||
+ | |||
और वह ध्यानस्थ देखता है | और वह ध्यानस्थ देखता है | ||
उस ग्रह की जगह एक विशाल अजगर | उस ग्रह की जगह एक विशाल अजगर | ||
पंक्ति 193: | पंक्ति 205: | ||
वह मदद के लिए पुकारता है | वह मदद के लिए पुकारता है | ||
और अब उसी प्रभु ग्रह के कुछ न्यायी जन | और अब उसी प्रभु ग्रह के कुछ न्यायी जन | ||
− | उसकी मदद के लिए | + | उसकी मदद के लिए आवाज़ उठाते हैं |
− | वह उन | + | वह उन आवाज़ों को अपने में मिला लेना चाहता है |
− | + | आवाज़ उसकी तरफ़ बढ़ती है | |
‘जनवाद! जनवाद! जनवाद!’ | ‘जनवाद! जनवाद! जनवाद!’ | ||
‘जन-संस्कृति!’ | ‘जन-संस्कृति!’ | ||
पंक्ति 201: | पंक्ति 213: | ||
‘जन-संस्कृति!’ | ‘जन-संस्कृति!’ | ||
के संकल्पबद्ध वैश्विक स्वर के साथ। | के संकल्पबद्ध वैश्विक स्वर के साथ। | ||
− | + | ||
− | दूसरी ध्यानस्थ | + | दूसरी ध्यानस्थ है — |
− | ‘‘अरे, मैं यहाँ कहाँ पहुँची | + | |
− | + | ‘‘अरे, मैं यहाँ कहाँ पहुँची हूँ — | |
− | सड़कें, चौराहें, | + | सम्भ्रान्त कलात्मक नक़्क़ाशी के साथ |
+ | सड़कें, चौराहें, गोलम्बर सब सजे हैं | ||
दिन में भी बिजली की रोशनी | दिन में भी बिजली की रोशनी | ||
दीवारों पर हँसते-मुस्कुराते | दीवारों पर हँसते-मुस्कुराते | ||
पंक्ति 211: | पंक्ति 224: | ||
वाह! कितना आकर्षक है! | वाह! कितना आकर्षक है! | ||
वाह! कितना विकास है! | वाह! कितना विकास है! | ||
− | ओह! लेकिन यह किसके | + | ओह! लेकिन यह किसके चीख़ने की आवाज़ है? |
− | दिन का उजाला है, मौसम | + | दिन का उजाला है, मौसम ख़ुशनुमा है |
ऐसे में तो गीत उच्चरित होने चाहिए | ऐसे में तो गीत उच्चरित होने चाहिए | ||
− | लेकिन यह | + | लेकिन यह चीख़ क्यों? |
+ | |||
मैं लोगों के पास जाकर | मैं लोगों के पास जाकर | ||
− | + | चीख़ के बारे में पूछती हूँ | |
आश्चर्य! मेरी छुअन से | आश्चर्य! मेरी छुअन से | ||
− | वे कछुआ हो | + | वे कछुआ हो गए... |
− | मेरा | + | |
− | + | मेरा रोमाँच अचानक भय में बदलने लगा है | |
− | लेकिन यह क्या | + | चीख़ मेरे सामने और सामने आने लगी है |
− | लोगों के अपने-अपने कलात्मक खिड़की- | + | लेकिन यह क्या चीख़ मेरे ही कानों को सुनाई दे रही है? |
+ | लोगों के अपने-अपने कलात्मक खिड़की-दरवाज़े इत्मिनान से बन्द हैं? | ||
+ | |||
अरे यह क्या? | अरे यह क्या? | ||
मैं ही गलियों में अब दौड़ रही हूँ, भाग रही हूँ | मैं ही गलियों में अब दौड़ रही हूँ, भाग रही हूँ | ||
अरे नहीं, मैं कहीं नहीं दौड़ रही, कहीं नहीं भाग रही | अरे नहीं, मैं कहीं नहीं दौड़ रही, कहीं नहीं भाग रही | ||
− | दरअसल मेरे अन्दर सिनगी दई का | + | दरअसल मेरे अन्दर सिनगी दई का ख़ून दौड़ रहा है |
− | फूलो, मकी, झानो का | + | फूलो, मकी, झानो का ख़ून दौड़ रहा है |
− | मेरे | + | मेरे अन्दर मेरी ही माँ-दादी का ख़ून दौड़ रहा है |
− | और मैं तड़पती | + | और मैं तड़पती हूँ |
− | इस | + | इस द्वन्द्व से बाहर निकलने के लिए |
+ | |||
मैं दिन में पहुँचती हूँ | मैं दिन में पहुँचती हूँ | ||
− | एक | + | एक अन्धेरी गली में |
‘अरे यह क्या...? | ‘अरे यह क्या...? | ||
यह तो किसी युवती की लाश है? | यह तो किसी युवती की लाश है? | ||
निरीक्षण करती हूँ आसपास | निरीक्षण करती हूँ आसपास | ||
− | |||
लोगों की कलात्मक खिड़कियाँ हैं | लोगों की कलात्मक खिड़कियाँ हैं | ||
− | + | नक़्क़ाशीदार दरवाज़े हैं | |
कलाओं का उत्सव है | कलाओं का उत्सव है | ||
− | वहीं हैं एक ओर | + | वहीं हैं एक ओर सफ़ेद विज्ञापन |
− | और | + | और स्त्री-प्रताड़ना के कानून |
इन सबके बीच मुझे दिखाई देती है | इन सबके बीच मुझे दिखाई देती है | ||
− | एक जीवित | + | एक जीवित स्त्री की मटमैली आकृति |
जिसके हाथ में हथौड़ा है, छेनी है, | जिसके हाथ में हथौड़ा है, छेनी है, | ||
हँसुआ है, चूल्हा है, चौकी है, | हँसुआ है, चूल्हा है, चौकी है, | ||
लेकिन उसके मूल्य का निर्धारण करता हुआ | लेकिन उसके मूल्य का निर्धारण करता हुआ | ||
− | वहीं पास में | + | वहीं पास में धुआँ उड़ाता एक पुरुष है, |
+ | |||
मैं युवती की लाश पर झुकती हूँ | मैं युवती की लाश पर झुकती हूँ | ||
उसे गोद में उठाती हूँ | उसे गोद में उठाती हूँ | ||
लेकिन अरे यह क्या...? | लेकिन अरे यह क्या...? | ||
− | यह तो समकालीन किसी पत्रिका का | + | यह तो समकालीन किसी पत्रिका का ‘स्त्री-विशेषांक’ है? |
− | उसके आवरण पृष्ठ पर | + | उसके आवरण-पृष्ठ पर |
− | एक गर्भवती | + | एक गर्भवती स्त्री की नंगी तस्वीर छपी है |
जिसके गर्भ में दो भ्रूण हैं | जिसके गर्भ में दो भ्रूण हैं | ||
एक में बच्चा है, दूसरे में बच्ची है | एक में बच्चा है, दूसरे में बच्ची है | ||
− | बच्चे के सिरहाने | + | बच्चे के सिरहाने ताज़ा फूल रखे हैं |
और बच्ची के सिरहाने | और बच्ची के सिरहाने | ||
− | + | सफ़ेद कपड़ों से लिपटा एक ताबूत रखा है, | |
− | और उसके | + | |
+ | और उसके अन्दर के पृष्ठ पर | ||
एक कोंदरेड्डी महिला की तस्वीर के साथ | एक कोंदरेड्डी महिला की तस्वीर के साथ | ||
विमर्श का विषय चस्पा है | विमर्श का विषय चस्पा है | ||
‘बलात्कार शब्द की व्युत्पति’ | ‘बलात्कार शब्द की व्युत्पति’ | ||
और किसी ने अपना पक्ष रखा है | और किसी ने अपना पक्ष रखा है | ||
− | ‘कम | + | ‘कम कपड़े पहनने के बावजूद |
आदिवासी समाज की भाषाओं में | आदिवासी समाज की भाषाओं में | ||
उनका मूल शब्द ‘बलात्कार’ नहीं है’ | उनका मूल शब्द ‘बलात्कार’ नहीं है’ | ||
− | पत्रिका में कामुकता, | + | पत्रिका में कामुकता, कुण्ठा, |
अवसाद और निराशा की शब्दावलियाँ | अवसाद और निराशा की शब्दावलियाँ | ||
घोटुल, गितिः ओड़ाः, | घोटुल, गितिः ओड़ाः, | ||
और धुमकुड़िया के शब्दों के सामने | और धुमकुड़िया के शब्दों के सामने | ||
बौनी और अपाहिज प्रतीत हो रही हैं, | बौनी और अपाहिज प्रतीत हो रही हैं, | ||
− | पत्रिका से | + | |
− | + | पत्रिका से नज़र हटते ही देखती हूँ | |
लोगों की भीड़ मुझे घूर रही है | लोगों की भीड़ मुझे घूर रही है | ||
− | मैं घबराकर | + | मैं घबराकर आदमक़द आईने के पास जाती हूँ |
− | मैंने देखा मेरा रूप | + | मैंने देखा मेरा रूप विचित्र हो चुका था |
मेरी कलाई में चूड़ियों की जगह | मेरी कलाई में चूड़ियों की जगह | ||
− | बैंक चेक और | + | बैंक चेक और ड्राफ़्ट थे |
− | कान की बालियों की जगह रंगीन | + | कान की बालियों की जगह रंगीन चलचित्र थे |
और जूड़े में फूल कि जगह | और जूड़े में फूल कि जगह | ||
− | + | ‘फ़ेयर लोशन’ के विज्ञापन झूल रहे थे | |
मेरी पूरी देह असीमित वस्तुओं की सूची से भरी थी | मेरी पूरी देह असीमित वस्तुओं की सूची से भरी थी | ||
मुझे अपनी देह विज्ञापन की होर्डिंग लग रही थी | मुझे अपनी देह विज्ञापन की होर्डिंग लग रही थी | ||
तभी किसी ने मुझसे कहा | तभी किसी ने मुझसे कहा | ||
− | ‘अब तुम आदिवासी | + | ‘अब तुम आदिवासी स्त्री नहीं हो |
और यहाँ आकर | और यहाँ आकर | ||
तुम्हारा समाज भी अब आदिवासी नहीं रहा’ | तुम्हारा समाज भी अब आदिवासी नहीं रहा’ | ||
पंक्ति 291: | पंक्ति 309: | ||
लेकिन सामने केवल एक शब्द | लेकिन सामने केवल एक शब्द | ||
हवा में जड़हीन तैर रहा था ‘आदिवासी’, | हवा में जड़हीन तैर रहा था ‘आदिवासी’, | ||
− | मैंने | + | |
− | सचमुच मैं कोंडरेड्डी | + | मैंने ग़ौर से ख़ुद को देखा |
+ | सचमुच मैं कोंडरेड्डी स्त्री नहीं थी | ||
और मैं जहाँ थी | और मैं जहाँ थी | ||
वह कोंडों की दुनिया नहीं थी | वह कोंडों की दुनिया नहीं थी | ||
पंक्ति 299: | पंक्ति 318: | ||
कोंड ‘पहाड़ों’ के राजा कहलाए | कोंड ‘पहाड़ों’ के राजा कहलाए | ||
नहीं थीं वे नदियाँ | नहीं थीं वे नदियाँ | ||
− | जिसका जल लेकर कोंड | + | जिसका जल लेकर कोंड स्त्रियाँ |
हल जोतने से पहले | हल जोतने से पहले | ||
अपने असमय मृत बच्चों का | अपने असमय मृत बच्चों का | ||
− | + | आह्वान करती थीं | |
बीज बनकर अवतरित होने के लिए, | बीज बनकर अवतरित होने के लिए, | ||
− | मैं बेचैन हो | + | |
+ | मैं बेचैन हो उठी — | ||
मेरी अस्मिता क्या है | मेरी अस्मिता क्या है | ||
− | क्या मैं कोंडरेड्डी | + | क्या मैं कोंडरेड्डी स्त्री नहीं हूँ |
− | या, वह | + | या, वह सम्भावित स्त्री हूँ |
जिसकी हत्या उस चौराहे पर हुई है | जिसकी हत्या उस चौराहे पर हुई है | ||
− | उफ!!...यह | + | उफ!!...यह द्वन्द्व |
मुझे हत्या या आत्महत्या के रास्ते पर ले जाएगा।’’ | मुझे हत्या या आत्महत्या के रास्ते पर ले जाएगा।’’ | ||
− | + | ||
− | तीसरा ध्यानस्थ देखता | + | तीसरा ध्यानस्थ देखता है — |
‘‘अहा! क्या सुन्दरता है! | ‘‘अहा! क्या सुन्दरता है! | ||
इतने रंगों का गतिमान समायोजन | इतने रंगों का गतिमान समायोजन | ||
पंक्ति 318: | पंक्ति 338: | ||
जैसे उसी की ओर | जैसे उसी की ओर | ||
आसमान से उतर कर धरती पर! | आसमान से उतर कर धरती पर! | ||
+ | |||
उनके माथे पर | उनके माथे पर | ||
− | रंग बिरंगे पक्षियों के पंख सजे हैं | + | रंग-बिरंगे पक्षियों के पंख सजे हैं |
पंख ही मुकुट हैं उनके | पंख ही मुकुट हैं उनके | ||
पूरा समूह बढ़ा आ रहा है उसकी ओर | पूरा समूह बढ़ा आ रहा है उसकी ओर | ||
− | पहचनता है उन्हें | + | |
− | ‘रेड | + | पहचनता है उन्हें वह — |
+ | ‘रेड इण्डियंस अबूझमाड़ में | ||
इन्द्रावती का पानी पी रहे हैं | इन्द्रावती का पानी पी रहे हैं | ||
और उन्हें गोरे सैनिकों ने | और उन्हें गोरे सैनिकों ने | ||
पंक्ति 330: | पंक्ति 352: | ||
अब वे और उनके घोड़े | अब वे और उनके घोड़े | ||
बिना अनुमति के | बिना अनुमति के | ||
− | बिना | + | बिना क़ीमत अदायगी के |
पानी नहीं पी सकते हैं | पानी नहीं पी सकते हैं | ||
ऐसा करना अपराध है।’ | ऐसा करना अपराध है।’ | ||
+ | |||
चौथे ध्यानस्थ ने सुने | चौथे ध्यानस्थ ने सुने | ||
चेतावनी भरे आज्ञावाचक शब्द | चेतावनी भरे आज्ञावाचक शब्द | ||
‘शूद्र’! ‘नीच’! | ‘शूद्र’! ‘नीच’! | ||
तुम्हारी यह हिम्मत | तुम्हारी यह हिम्मत | ||
− | कि तुम धर्म की नीतियों का | + | कि तुम धर्म की नीतियों का उल्लँघन करोगे? |
− | हम इस | + | हम इस मन्दिर के पुजारी हैं |
सदियों से वंशानुगत | सदियों से वंशानुगत | ||
हमारे पुरखे इसके पुजारी रहे हैं | हमारे पुरखे इसके पुजारी रहे हैं |
17:57, 14 दिसम्बर 2017 के समय का अवतरण
सुगना मुण्डा की बेटी
डोडे —
जरा सोचो!
वह पहाड़ जिसकी पूजा से बसन्त खिल उठता है
उसे दफ़ना दिया जाए तो
सूरज क्यों न अपनी दिशा खो दे
सूरज क्यों न क्रोधित हो जाए
उसकी उस सीढ़ी को उसके
रास्ते से हटा दिया जाए तो
क्यों न वह आग उगलेगा।
सहजीविता की समझ ही ज्ञान है
सम्वेदनाओं, अनुभूतियों की पहचान ही ज्ञान है
ज्ञान प्रतिस्पर्धा नहीं प्रेम सिखाता है
प्रकृति और मनुष्य
मनुष्य और प्रकृति की सहजीविता
समूह में सम्भव है
इसे सींचना पड़ता है
अब यह तुम सबका दायित्व है कि
इसका बीजारोपण आगामी पीढ़ी में करो,
ज्यों-ज्यों इसके बीज
अँकुरित होंगे, पुष्पित होंगे, फलित होंगे
त्यों-त्यों बाघ पर अँकुश लगेगा
और तब ही रोग निवारण के लिए
औषधियों का अस्तित्व रहेगा
उसी के अस्तित्व से नियन्त्रित होंगे प्राकृत-अप्राकृत बाघ’’
डोडे की बातों से
सातों जनों के मन में लहर उठती
वे सोचते, गुनते, मथते
सामने मिट्टी का दीया
हवा के झोंकों से हिलता-डुलता
कभी बुझने को होता
कभी अचानक ही उसकी लौ दहक उठती
वैद्य कहते जाते और
परीक्षार्थियों के चेहरे की भँगिमा को भी परखते जाते
और उनकी भौंहों की रेखाएँ सिकुड़ती-फैलती जाती
‘क्या सातों जन सफल होंगे
या फिर कोई एक-दो ही
उसके ज्ञान को ग्रहण कर सकेंगे?
आजीवन साधना का परिणाम
निजी सफलताओं में नहीं
आगामी पीढ़ी की सफलताओं से सिद्ध होता है
तो क्या उनके जीवन की साध अधूरी रह जाएगी?
एक साथ सात जनों की सफलता की साध
जो अब तक सम्भव नहीं हुआ है उनके गुड़ी की दुनिया में?
परिस्थितियों की प्रस्तुति
और उसके सन्दर्भों की व्याख्या कर
गुड़ी परीक्षा के लिए आवश्यक निर्देश देते हुए
डोडे वैद्य ने फिर कहना शुरू किया —
‘‘घनी काली रात
इतनी काली कि
सामने कोई भी दिख न रहा हो
केवल प्रतीति हो किसी आकृति के उभरने की
मिथ्या और भ्रम उत्पन्न करने वाली
ऐसी ही काली अन्धेरी रात में उभरती
आकृतियों को पहचानने की परीक्षा है यह,
आदमी को आदमी और
बाघ को बाघ के रूप में
पहचानने की क्षमता आती है
उसके व्यवहार के अतिरिक्त
जीवन-अनुभवों के साथ
इतिहास, दर्शन और विज्ञान की भी पड़ताल से
हमारे लिए रात का आशय
‘पहर’ के रात भर से नहीं है
बल्कि दिन के उजालों में फैले
जन के विरुद्ध संस्थागत कृत्यों से है
ठीक वैसे ही जैसे
रोग का आशय सिर्फ
दैहिक-मानसिक रोग से नहीं
बल्कि व्यवस्था रूपायित रोग से भी है,
यही विचार गितिः ओड़ाः, धुमकुड़िया, घोटुल
और पड़हा के गणतन्त्र का विस्तार करेगा
सहधर्मियों को अपने सँघर्ष में
शामिल होने का अवसर देगा
अन्धेरे के साम्राज्य के समूल नाश के लिए
सहधर्मियों के सँघर्ष का साथ होना ज़रूरी है’’
उनके सामने धुअन की
महक उड़ती रही
उसके नशे में जैसे वहाँ सब धीरे-धीरे
मदहोश हो रहा था
कुछ पल आँखों को और गम्भीरता से मीचते हुए डोडे ने कहा
‘‘जैसे ‘अहद् सिंग’ को लाँघने के बाद
मनुष्य घर का रास्ता भूल
नदी, पहाड़, जंगलों में
वर्तमान से इतर यथार्थ की दुनिया में पहुँच जाता है
वैसे ही तुम भी पहुँचोगे
अपने वर्तमान देश, काल, परिवेश से इतर
अपने ही जीवन से सम्बद्ध यथार्थ में,
सब कुछ असामान्य प्रतीत होगा
लेकिन वह सामान्य ही होगा
कई बार तुम्हें अपने ही जीवन की प्रतीति होगी
कई बार अपने दुनियावी अनुभव से परे जीवन की प्रतीति होगी
किन्तु वह सत्य और यथार्थ ही होगा
ज्ञान का नया अनुभव होगा
भले ही वह कभी भी जीवन के अनुभव में न रहा हो
जो सत्य तो होगा किन्तु अविश्वसनीय भी प्रतीत होगा
यहीं से तुम्हें मिलेगी
रोग के कारक और निवारक को पहचानने की शक्ति,
और जब तुम लौटोगे
उस अवास्तविक-वास्तविक दुनिया से, तो होगी
नई सुबह, नई दिशाएँ, और नया जीवन
तुम सात जन होगे सात जीवन
सात अनुभव, सात ज्ञान,
लेकिन तब तक रास्ते में होंगे
ज़हरीले साँप, कीड़े-कॉक्रोच
रेत, दलदल, तूफ़ान, विस्फोट
और भयावह परिस्थितियाँ
तुम्हें इन सबसे लड़ना ही होगा,
अब मैं यह लाठी धरता हूँ
मन्तर शुरू करता हूँ
मन्तर नहीं, यह गीत गाता हूँ
‘‘तन मन जन
को घेरे हैं ज़हरीले फन
पेड़ पहाड़ तितली जुगनू
सभी सहजीवी होंगे मृत
या होंगे अधिकृत
रात शशिधर
जब होगी बिषधर
सुनो सपेरे स्याह सवेरे
कैसे तोड़ोगे विष के घेरे
सात जनों की सात कथा
रहेगी तब तक यही व्यथा
तन की, मन की, जन की’’
अरे, यह क्या?
मन्तर का असर होता है
नहीं गीत ही जीवन में घुलता है
जीवन रूपायित होता है गीत में,
देखो, पहला ध्यानस्थ देखता है —
‘‘नृतत्वशास्त्री खेत में फ़सलों
की क़िस्मों को अलग कर रहे हैं
वे एक ख़ास क़िस्म की
फ़सल की तरफ संकेत करते हुए
कहते हैं कि इनकी प्रजाति एक ही है
एक ही मूल के हैं ये
कोल, भील, मुण्डा, सन्थाल, गोंड, खरवार
बैगा, मुड़िया, कोंड, कोया, पहाड़िया,
ऐसे ही और भी सभी,
जिनका एक ही सहजीवी दर्शन रहा है,
एक नृतत्वशास्त्री कहना है
कि जब घुमन्तु ग्रह की ठोकर लगी थी ज़बरदस्त
ये टुकड़ों में बिखर गए
सभी दिशाओं में, सभी भौगोलिक कोनों में,
वह ग्रह टूटा नहीं बल्कि
वह उनकी ही ज़मीन पर गिरा
और उनके आधे से अधिक
ज़मीन पर जबरन काबिज़ हो गया
अब ज़मीन के लिए संघर्ष शुरू हुआ
और इसके साथ ही शुरू हुआ दानवों का जन्म
उस ग्रह के लोग जितना
अपने जीतने का दावा करते
उतना ही देवताओं और दानवों का जन्म होता गया,
उस नृतत्वशास्त्री के पास
एक युवा शोधार्थी आता है और कहता है
‘नहीं रहे अब सब एक-से
एक-सा नहीं रहा उनका सहजीवी दर्शन
धर्म में, नस्ल में, रंग में बाँट दिए गए हैं ये
ये ही नहीं, पूरी मनुष्यता ही बँटी है धरती पर’
ज्यों-ज्यों उस ग्रह का प्रभुत्व बढ़ता गया
वे अपना मूल उत्स भूलते चले गए
उनमें से कुछ उसके पंजों में फँसे रह गए
कुछ अलग दूर उनसे लगातार संघर्ष करते रहे
उनका यह संघर्ष आज भी जारी है
उस ग्रह के पंजे में फँसे लोग
मनुष्य होकर भी पशुता-से प्रताड़ित हैं
उससे बाहर के लोग
अपने ‘मनुष्य होने’ के दावे के साथ
उनके पंजों से बचने के लिए लड़ रहे हैं
दोनों की अस्मिता पर प्रश्न चिह्न है
दोनों का अस्तित्व संकट ग्रस्त है
आज उस प्रभु ग्रह की जीभ
उनकी पूरी ज़मीन को
ग्रस लेने की असीमित लालसा में है
जहाँ उनकी भाषा है, इतिहास है, दर्शन है
और वह ध्यानस्थ देखता है
उस ग्रह की जगह एक विशाल अजगर
उसी की तरफ अपनी जीभ लपलपाता है
वह अजगर के जबड़े में फँसे
अपने लोगों को निकालने के लिए हाथ डालता है
लेकिन उसका हाथ बाजुओं तक फँस जाता है
वह मदद के लिए पुकारता है
और अब उसी प्रभु ग्रह के कुछ न्यायी जन
उसकी मदद के लिए आवाज़ उठाते हैं
वह उन आवाज़ों को अपने में मिला लेना चाहता है
आवाज़ उसकी तरफ़ बढ़ती है
‘जनवाद! जनवाद! जनवाद!’
‘जन-संस्कृति!’
‘जन-संस्कृति!’
‘जन-संस्कृति!’
के संकल्पबद्ध वैश्विक स्वर के साथ।
दूसरी ध्यानस्थ है —
‘‘अरे, मैं यहाँ कहाँ पहुँची हूँ —
सम्भ्रान्त कलात्मक नक़्क़ाशी के साथ
सड़कें, चौराहें, गोलम्बर सब सजे हैं
दिन में भी बिजली की रोशनी
दीवारों पर हँसते-मुस्कुराते
दमकते हुए विज्ञापन हैं
वाह! कितना आकर्षक है!
वाह! कितना विकास है!
ओह! लेकिन यह किसके चीख़ने की आवाज़ है?
दिन का उजाला है, मौसम ख़ुशनुमा है
ऐसे में तो गीत उच्चरित होने चाहिए
लेकिन यह चीख़ क्यों?
मैं लोगों के पास जाकर
चीख़ के बारे में पूछती हूँ
आश्चर्य! मेरी छुअन से
वे कछुआ हो गए...
मेरा रोमाँच अचानक भय में बदलने लगा है
चीख़ मेरे सामने और सामने आने लगी है
लेकिन यह क्या चीख़ मेरे ही कानों को सुनाई दे रही है?
लोगों के अपने-अपने कलात्मक खिड़की-दरवाज़े इत्मिनान से बन्द हैं?
अरे यह क्या?
मैं ही गलियों में अब दौड़ रही हूँ, भाग रही हूँ
अरे नहीं, मैं कहीं नहीं दौड़ रही, कहीं नहीं भाग रही
दरअसल मेरे अन्दर सिनगी दई का ख़ून दौड़ रहा है
फूलो, मकी, झानो का ख़ून दौड़ रहा है
मेरे अन्दर मेरी ही माँ-दादी का ख़ून दौड़ रहा है
और मैं तड़पती हूँ
इस द्वन्द्व से बाहर निकलने के लिए
मैं दिन में पहुँचती हूँ
एक अन्धेरी गली में
‘अरे यह क्या...?
यह तो किसी युवती की लाश है?
निरीक्षण करती हूँ आसपास
लोगों की कलात्मक खिड़कियाँ हैं
नक़्क़ाशीदार दरवाज़े हैं
कलाओं का उत्सव है
वहीं हैं एक ओर सफ़ेद विज्ञापन
और स्त्री-प्रताड़ना के कानून
इन सबके बीच मुझे दिखाई देती है
एक जीवित स्त्री की मटमैली आकृति
जिसके हाथ में हथौड़ा है, छेनी है,
हँसुआ है, चूल्हा है, चौकी है,
लेकिन उसके मूल्य का निर्धारण करता हुआ
वहीं पास में धुआँ उड़ाता एक पुरुष है,
मैं युवती की लाश पर झुकती हूँ
उसे गोद में उठाती हूँ
लेकिन अरे यह क्या...?
यह तो समकालीन किसी पत्रिका का ‘स्त्री-विशेषांक’ है?
उसके आवरण-पृष्ठ पर
एक गर्भवती स्त्री की नंगी तस्वीर छपी है
जिसके गर्भ में दो भ्रूण हैं
एक में बच्चा है, दूसरे में बच्ची है
बच्चे के सिरहाने ताज़ा फूल रखे हैं
और बच्ची के सिरहाने
सफ़ेद कपड़ों से लिपटा एक ताबूत रखा है,
और उसके अन्दर के पृष्ठ पर
एक कोंदरेड्डी महिला की तस्वीर के साथ
विमर्श का विषय चस्पा है
‘बलात्कार शब्द की व्युत्पति’
और किसी ने अपना पक्ष रखा है
‘कम कपड़े पहनने के बावजूद
आदिवासी समाज की भाषाओं में
उनका मूल शब्द ‘बलात्कार’ नहीं है’
पत्रिका में कामुकता, कुण्ठा,
अवसाद और निराशा की शब्दावलियाँ
घोटुल, गितिः ओड़ाः,
और धुमकुड़िया के शब्दों के सामने
बौनी और अपाहिज प्रतीत हो रही हैं,
पत्रिका से नज़र हटते ही देखती हूँ
लोगों की भीड़ मुझे घूर रही है
मैं घबराकर आदमक़द आईने के पास जाती हूँ
मैंने देखा मेरा रूप विचित्र हो चुका था
मेरी कलाई में चूड़ियों की जगह
बैंक चेक और ड्राफ़्ट थे
कान की बालियों की जगह रंगीन चलचित्र थे
और जूड़े में फूल कि जगह
‘फ़ेयर लोशन’ के विज्ञापन झूल रहे थे
मेरी पूरी देह असीमित वस्तुओं की सूची से भरी थी
मुझे अपनी देह विज्ञापन की होर्डिंग लग रही थी
तभी किसी ने मुझसे कहा
‘अब तुम आदिवासी स्त्री नहीं हो
और यहाँ आकर
तुम्हारा समाज भी अब आदिवासी नहीं रहा’
मैं उस आदमी को नहीं देख सकी
लेकिन सामने केवल एक शब्द
हवा में जड़हीन तैर रहा था ‘आदिवासी’,
मैंने ग़ौर से ख़ुद को देखा
सचमुच मैं कोंडरेड्डी स्त्री नहीं थी
और मैं जहाँ थी
वह कोंडों की दुनिया नहीं थी
नहीं थे वे पहाड़
जिसके पूर्वज होने के नाते
कोंड ‘पहाड़ों’ के राजा कहलाए
नहीं थीं वे नदियाँ
जिसका जल लेकर कोंड स्त्रियाँ
हल जोतने से पहले
अपने असमय मृत बच्चों का
आह्वान करती थीं
बीज बनकर अवतरित होने के लिए,
मैं बेचैन हो उठी —
मेरी अस्मिता क्या है
क्या मैं कोंडरेड्डी स्त्री नहीं हूँ
या, वह सम्भावित स्त्री हूँ
जिसकी हत्या उस चौराहे पर हुई है
उफ!!...यह द्वन्द्व
मुझे हत्या या आत्महत्या के रास्ते पर ले जाएगा।’’
तीसरा ध्यानस्थ देखता है —
‘‘अहा! क्या सुन्दरता है!
इतने रंगों का गतिमान समायोजन
इन्द्रधनुष चला आ रहा हो
जैसे उसी की ओर
आसमान से उतर कर धरती पर!
उनके माथे पर
रंग-बिरंगे पक्षियों के पंख सजे हैं
पंख ही मुकुट हैं उनके
पूरा समूह बढ़ा आ रहा है उसकी ओर
पहचनता है उन्हें वह —
‘रेड इण्डियंस अबूझमाड़ में
इन्द्रावती का पानी पी रहे हैं
और उन्हें गोरे सैनिकों ने
इस चेतावनी के साथ घेर लिया है कि
पानी की नीलामी देशहित में हो चुकी है
अब वे और उनके घोड़े
बिना अनुमति के
बिना क़ीमत अदायगी के
पानी नहीं पी सकते हैं
ऐसा करना अपराध है।’
चौथे ध्यानस्थ ने सुने
चेतावनी भरे आज्ञावाचक शब्द
‘शूद्र’! ‘नीच’!
तुम्हारी यह हिम्मत
कि तुम धर्म की नीतियों का उल्लँघन करोगे?
हम इस मन्दिर के पुजारी हैं
सदियों से वंशानुगत
हमारे पुरखे इसके पुजारी रहे हैं
और तुम कह रहे हो
कि यहाँ पहले तुम्हारा गाँव था।?