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"रूह ऊला थी, जिस्म सानी था / दीपक शर्मा 'दीप'" के अवतरणों में अंतर

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एक कँटीली नार है भाई
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रूह ऊला थी, जिस्म सानी था'
नार नहीं गुलनार है भाई
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'इश्क़' सचमुच में शे'र यानी था!
  
हाए सरापा शादाबी तन
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उस की बाहें भी गुलहज़ारा थीं
जोबन अपरम्पार है भाई
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उस का बोसा भी ज़ाफ़रानी था
  
माहे-सावन की शोख़ी है
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सब ने बोला कि वां तो सहरा है
इंद्रधनुष का सार है भाई!
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हम ने लिक्खा 'वहां पे पानी था'
  
वो गालों पा टीका काला
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इतनी जुर्रत जहां के बस की थी?
उस का पहरे-दार है भाई
+
कोई जलवा तो ''आसमानी'' था
  
पर्बत-दरिया-घाटी-सहरा
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उससे कैसी उम्मीद कब तक की
यों उसका आकार है भाई
+
'जिस का पेशा ही ख़ानदानी था'
  
'वो ही दिल की चारागर है  
+
वक़्त ने ही किया है कुछ य'अनी
दिल उससे बीमार है भाई'
+
'याद अब तक वो मुँहज़बानी था'
  
वो ग़ाइब है और अदब को
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'रास उसको भला क्यों आता दैर
उस की ही दरकार है भाई!
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वो तो फ़ितरत से ला मकानी था'
  
उसके दिल का वो ही जाने
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उसका किस्सा ही दब गया गोया
अपना दिल लाचार है भाई
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वो जो ख़ुद में ही इक कहानी था
  
क्योंकर नाज़ दिखावे ना वो
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प्यार करता था कोई मुझ से ख़ूब
जब उसकी सरकार है भाई
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याद कहती है, मैं भी 'जानी' था
 
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09:42, 23 दिसम्बर 2017 के समय का अवतरण


रूह ऊला थी, जिस्म सानी था'
'इश्क़' सचमुच में शे'र यानी था!

उस की बाहें भी गुलहज़ारा थीं
उस का बोसा भी ज़ाफ़रानी था

सब ने बोला कि वां तो सहरा है
हम ने लिक्खा 'वहां पे पानी था'

इतनी जुर्रत जहां के बस की थी?
कोई जलवा तो आसमानी था

उससे कैसी उम्मीद कब तक की
'जिस का पेशा ही ख़ानदानी था'

वक़्त ने ही किया है कुछ य'अनी
'याद अब तक वो मुँहज़बानी था'

'रास उसको भला क्यों आता दैर
वो तो फ़ितरत से ला मकानी था'

उसका किस्सा ही दब गया गोया
वो जो ख़ुद में ही इक कहानी था

प्यार करता था कोई मुझ से ख़ूब
याद कहती है, मैं भी 'जानी' था