"बाल दिवस की महफिल / शारदा सिंह" के अवतरणों में अंतर
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12:53, 25 दिसम्बर 2017 के समय का अवतरण
बाल दिवस की महफिल के साथ
मैं चाचा नेहरू के संदेश को सजाना चाहती हूँ।
झुग्गी झोपड़ियों में भूख से बिलबिलाते,
मिट्टी की सोंधी खुशबू में नहाये,
चिथड़े पहने
छोटे-छोटे बेतरतीब केशों वाले
बच्चे याद आते हैं।
पता नहीं
इनके पास अपने चाचा नेहरू के बाल दिवस के संदेश कब पहुँचेंगे?
बाल दिवस पर हाथ में स्लेट लिये
बुशर्ट के नीचे के बटन खुले होने से
पिल्ली से ग्रसित निकले पेट लिये
मध्हयान भोजन की लालच में,
स्कूल के तरफ दौड़ते बच्चे याद आते हैं।
आजादी के सत्तर साल बाद भी
इन्हें इंतजार है ...
चाचा नेहरू के संदेश का।
ये बच्चे भी जेहन में लिये घूमते हैं
जो कस्बों की गलियों में
कूड़े कचड़े, गत्ते, बोतल, शीशी बीनते हुए
अपने दो जून की रोटी की जुगाड़ में
अपने बचपन औ' कैशोर्य के एहसास की
भ्रूण हत्या कर
एक अनिश्चित भविष्य के टुकड़े को
थामे हैं
बाल दिवस की महफ़िल में उनके साथ
चाचा नेहरू के सपनों को
सजाना चाहती हूँ।
मैं इस मुबारक़ मौक़े पर
अपने ख़्यालों में
उन बच्चों को भी
समेटना चाहती हूँ
जो कालीन, काँच, लोहे की फ़ैक्ट्रियों में
पूंजी की बेदी पर
अपनी उम्र को निसार कर देते हैं।
वे बच्चे भी हमारे ही होते हैं
जो खेत खलिहानों में बिलबिलाते पशु पक्षियों की तरह
दाने बीनते हैं,
चौक चौराहों पर
टायर ट्यूब का पञ्चर बनाते हैं,
रेस्तराँओं में
प्लेट धोते,
पानी से सड़ गये हाथों में लिए
गंदे कपड़ों से
मेजों को साफ़ करते
भोंडे फ़िल्मी गीत संगीत पर
थिरकते गुनगुनाते मिल जाते हैं
मैंं चाहूँगी कि
काश! वे बच्चे भी नेहरू के सपनों
के गान बनते
वैज्ञानिक चेतना के वारिस बनते
मुक्तिगाथा के योद्धा बनते
जनगणनमन संगीत की जान
बंदेमातरम की तान
इन्क़्लाब की शान
सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ की मुस्कान बनते
मैं बाल दिवस पर अपनी कल्पनाओं में
इन बच्चों को भी
समेट लेना चाहती हूँ
इनको देना नया हिन्दुस्तान
हैं खिलौने सभी खो गये,
मुझको देनी है इनमें भी जान॥