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"माँ : एक नवीन चिंतन / मनोज चारण 'कुमार'" के अवतरणों में अंतर

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हाँ माँ सच है कि,
मुझ पर तेरा कर्ज है,
सच है तेरी सेवा करना
मेरा सबसे बड़ा फर्ज है।
सच है कि मैं तेरे कारण हूँ,
तेरी रज से बना,
तेरी मिट्टी से गढ़ा,
तेरे लहु से पला,
और तेरे ही कारण इस जग में,
अपने पैरों पे चला।
पर सच ये भी है माँ,
कि,
मुझमें बाप का भी अंश है,
जन्मा भले ही कोख से तेरी,
पर,
मुझमें जिंदा बाप का वंश है।
क्या नहीं है पिता का कर्जा,
फिर क्यों नहीं होती चर्चा,
तेरे कारण मैं हूँ, सही है,
पर,
क्या बाप भी एक कारण नहीं है?
आज तूँ मेरी माँ है तो महान है,
क्या मेरी दादी में नहीं जान है?
माँ, आज तूँ इतराती है जैसे,
कल दादी भी इतराती थी वैसे,
कल तेरी बहु इतराएगी वैसे,
फिर वो दोनों कम, और
तुम ज्यादा महान हो गई कैसे?
माँ, इस देश में,
इस दुनियां में,
झूठ फैला दिया गया अनूठा,
माँ-बेटे का रिश्ता ही सच,
बाकी हर रिश्ता है झूठा।
पर सच में तो
माँ,
सैनिक
और देश,
इन तीनों को पवित्र गाय बनाया है,
इसी झूठ में सारा जग भरमाया है।
इस जग में मैं आया निर्दोष,
निष्पाप और निकलंक,
आकर सबसे पहले देखा तेरा अंक।
तूने मुझे बताया,
ये बाप है,
जिसका रूप छोटा तूँ आप है।
तूने बताया ये दादी ये दादा है,
इनका प्यार कम दिखावा ज्यादा है।
चाचा-चाची, ताऊ-ताई,
गली-मौहल्ला, सब पहचान कराई।
जिस दिन तूने मुझे इन
सब रिश्तों में बांट दिया,
सच तो ये है माँ,
कि,
तूने मुझे खुद से भी काट दिया।
जग के झूठ को परखने,
तेरे सच के स्वाद को चखने,
मैं लगा खुद में जगने।
कुछ मैं झूठा था,
कुछ दुनियां,
और
कुछ निकली माँ तूँ भी झूठी,
मेरी तेरी स्नेह-डोरी की,
उस दिन कई तारें टूटी।
माँ,
ये तारें टूटने में,
ना मेरी गलती है,
ना तेरी गलती है,
पर ये दुनियां का दस्तूर है,
ये दुनियां यूं ही चलती है।
पर अंत में यह कह सकता हूँ,
कि,
तेरे अंतस का टुकड़ा हूँ,
नकार नहीं सकोगी तुम,
माँ हो तुम, भगवान नहीं,
गलती मुझसे तो होती है,
हमेशा,
पर गलती तुम भी कर सकती हो,
स्वीकार सकोगी तुम।
तुम्हारे बेटे-बेटी और हो सकते है,
पर मेरे दूसरी माँ नहीं,
तुम भले ही मुझसे रूठो,
मैं भले ही तुमसे रूठूँ,
पर जुदा हम-तुम
हो सकेंगे ?
नहीं, नहीं,
कभी नहीं, कभी नहीं।।