भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सब बदल गया / मनोज चारण 'कुमार'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज चारण 'कुमार' |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

13:57, 30 दिसम्बर 2017 के समय का अवतरण

हाँ अब वो वक्त नहीं रहा,
जब रात की ठंडी खिचड़ी भी,
बन जाती थी,
एक लजीज पकवान थाली में,
मिल जाती थी चलते-फिरते,
आशिषे माँ की गाली में।।
वो चूल्हे की बानी गुम है,
दही खिलाती,
वो नानी गुम है,
तेज होने लगी धूप है,
परिण्डो में अब पानी गुम है।।
छुप जाते जो देख गुरुजी रस्ते पर,
जिनके भय से धूल,
ना,जमने देते थे,
जो बस्ते पर,
टीचर बचे है, गुरुजी गुम है,
नेह बंधन में चीनी कम है।।
छुटपन में करते थे लड़ाई,
रूठ जाते थे बहन और भाई,
भूल गए वो रूठ, मनाना,
नहीं रही वो प्यारी लड़ाई।।
बिना राग की मीठी लोरी,
बदली आया की थपकी में,
गहरी मीठी नींद भोर की,
बदल गई है झपकी में।।
पीपल जोहड़ किनारे वाला,
पानी भरती ग्रामीण बाला,
बना गिनाणी बूढ़ा जोहड़,
बंद हो गया पानी का खाळा।।
दादी और नानी की कहानी,
नहीं सुनते अब उनकी जुबानी,
साथ नहीं रहते हम उनके,
खो गए हैं चंदा मामा,
खो गई हैं,
प्यारी रानी।।
वो मीठे-मीठे सपने बदले,
बदला है रंग जवानी का,
सतरंगी वो सांझे बदली,
स्वाद बदल गया पानी का।।
जाने कब ?
क्यूँ ? और कैसे ?
बदल गई सब रीत पुरानी,
वक़्त, बदल गया है,
जैसे,
बदल गया, गंगा का पानी।।