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"भूमिका / कुमार मुकुल" के अवतरणों में अंतर

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15:34, 13 जनवरी 2018 के समय का अवतरण

{{KKCatK​​ avita}}

अपना अपना परिवेश पुनर्रचित करने का
मौका मिले हमें
तो वहां से शुरू करना पसंद करेंगे हम
परंपरागत अर्थों में कोई संबंध
जहां हमें
अपना परिभाषित करने को बाध्य नहीं हो
 
अपनों के बीच खड़े हों हम
हमारा अतीत हमारे वर्तमान से आरंभ हो
और हमारा वर्तमान
हमारे भविष्य तक खिंच जाय

हमारे आजू बाजू जो चेहरे हों
उनमें कोई शबनम सा हो कोई शोले सा
गर कोई ठूँठ जैसा हो
तो कोई लतिका सा ठूंठ से लिपटा
अपनी हरीतिमा से
उसकी अपंगता शमित करता हुआ हो

उनके साजो-सवाँर के लिए
सौंदर्यशास्त्रीय कैंची के विधान ना हों
बल्कि मौसम के नरम सलीकेदार हाथ
शुष्क फूलों को धरती पर ले आएं
और सागर से उठी घटाएं हैं उनका रस
ठूंठ की जड़ों तक पहुंचाएं
और ठूंठिअत किसी को भी
विरासत न मिले

वहां सपने गतिशील हों
एक तय दिशा हो उनकी
सपनों तथा सचों के मध्य की खाई
दुलंघ्य ना हो

वहां देश
लोहे के शस्‍त्रागारों से घिरे
किसी भूखंड का नाम नहीं हो
ना वह लोकतंत्र की गाय के लिए
वैधानिक वधस्थली हो
न शहीदों के मजारों का मेला मात्र हो
महासमुद्र की ठोस परिव्याप्ति की तरह हो वह
जहां तक जाते जाते
नदी नालों का वेग
अपनी तीक्ष्णता त्याग
उसकी अगाधता का अंग हो जाए

जिसकी छाती पर
रोटी की तरह का कोई चांद उगे
तो उसकी शीतलता तथा रोशनी को
अपनी अपनी बाहों में भरने का अधिकार
हर लहर को पूरा हो
और सूरज जब किरणीली हथेलियों से
उसका चेहरा सहलाए
तो वोल्गा, गंगा या नील की लहरें
अपने हिस्से की ऊर्जा के लिए
अलग से संरक्षण की मांग न करें

वहां इतिहास सोने की चिड़िया जैसा
जड़ परिकल्पना
या पथरीली सफेद चादर में
मजदूरों के मुर्दा हाथ छिपाए
ताजमहल जैसा नहीं हो
जिसकी ऊंची नाक
राम जी के पतंग सरीखी
कहीं कल्पना के स्वर्ग लोक में
अटकी हुई हो
जिस पर
मक्खी को बैठने से रोकने के लिए
साढ़े पांच सौ हनुमान
सेवा की तलवार उठाए
कश्मीर से कन्याकुमारी तक
हवाई कर कवायद कर रहे हों

अपनी भुलक्कड़ी शक्ति
जिसका उपयोग कर
वैदिक ऋचाओं को
पुरान पच्चीसी में बदलते रहे हैं हम
जिसकी मदद से
हजारों हजार खंडों में विखंडित
चील - झपट्टा में मस्त
आन बान शान की त्रइ पर टिका
हिंदू राज साध्य हो जाता है हमारा
उसे हम इतिहास के उन अनअपेक्षित अशों को
भुलाने में प्रयोग करें
जो अनवरत सपनों की
कभी न टूटने वाली फंतासियां बुनबुन कर
आपंग तथा अपाहिज करता रहा है हमें
और थोथे गुरुडम की आड़ में
गलीज विरासत सिरजता रहा है

बाकी का हरा-भरा वर्तमान
अहम के विभ्रम में जिससे हम
सुदृढ नींव नहीं बना सके
जिसे सदियों के दबाव और जकड़न ने
कोयले में बदल डाला है
उसे जंग लगी तलवार की माफिक
थाम कर अपने चेहरे स्याह नहीं करें हम
वरन उसके चमकदार
हीरों में तब्दील हिस्सों को विलगाकर
शेष उस भट्टी में झोंक दें
जहां आगत भविष्य के लिए
इंटें पक रही हों

हमारा इतिहास
पावों के नीचे से जमीन खिसकाता
आकाशी उदभावनाओं का इतिहास नहीं हो
दो-चार पत्थर ही गढ़ सकें हम
वे इतने पुख्ता जरुर हों
कि उन्हें परखने को बार-बार हमें
अपनी नींव न खोदनी पडे

और इतिहास की खदानों से निकाले गए हीरे
किसी एलिजाबेथ या जार की
ताजपोशी के लिए न हों
ना ही वे म्यूजियम की शान में बरकत बतौर हों
हमारे श्रमिकों के फेंटो में खुसे हों वह
जिनसे उन आपारदर्शक शीश महलों को काट सकें वह
जहां उनके हिस्से के दूध और भारत का बंटवारा
मुल्क के तीमारदार कर रहे हों

सेवा दया माया दुआ और दान
हमारी मंजिले नहीं हों
तीन- तीन युग बीत गए उनके देने के
उनकी दुनिया भर गई
दानियों से
पर हमारी जेबें खाली रहीं

सेवा,माया, दया और दान को
अतीत के दिरखों पर
रख छोड़ें हम
यह नहीं होंगे
तो माया भी नहीं होगी
माया नहीं रहेगी
तो कीचड़ में धंसा जर्जर धर्म
किस तरह कंगन दिखला दिखलाकर
भोले भाले पथिकों को ठग सकेगा
इनकी जगह
सहभागिता, हार्दिकता, पूराक सहयोग लें
माया की जगह ले
खनखनाता उत्साह
और अंतश्चेतना से चालित
बाह्य संघर्षों से दिशाबोध पाता
जनगंगा का ज्वार
जगह ले धर्म की

समय के रथ के दो पहिए हों
स्वविवेक और विज्ञान
जिसमे कल्पना के घोड़े जुते हों
जिस पर लगाम थामें
रथारूढ़ हो कर्म

स्वविवेक और विज्ञान के चक्के तले
पिसते चलें दुराग्रह
चूर होती जाएं रूढियां
और कल्पना के चंचल पदाघातों से
उन्हें छितराता चले कर्म

सांप्रदायिकता की विषकीलें
इतिहास के पृष्ठों से जो
कहीं भी उग आती हैं
उन्हें बटोर कर दूर फेंक देना ही
काफी नहीं होगा
फिर फिर लौट आएंगी वह
इन कुटनी किलों को
घिस घिसकर मिटाएं हम

नागों की उम्र, जाति या धर्म
नहीं देखेंगे हम
जब भी कोई चेहरा
फन की तरह बल खा कर उठेगा
हमारे हाथ
चैले की शक्ल अख्तियार कर लेंगे
सपोलों को अपने कनकिरवों का हिस्सा
दूध-लावा इसलिए नहीं देंगे हम
कि एवज में वह
उनकी सहमी हुई जान छोड़ देंगे
भय के साए में जीती औलाद
हमारी नहीं होगी
हमारे यहां हर हाथ उठता हुआ होगा

जुर्म की इमारत
जब संविधान की धाराओं की जद में
अपना पथरीला वजूद फैलाएगी
और हरियाली की दबती पिसती चीख
बेबस नजर आएगी
तब हमारे जवां हाथ सीखेंगे
वक्त की जरूरत के अनुसार
कला ग्रेनेड की
जब दिशाओं से उठती चीखें
तलवों की नसों को तबाह करती
मांस पेशियों को चिलचिलाती
हमारे हाथों को फड़फड़ाएंगी
तब हमारे हाथ सीखेंगे
ग्रेनेड की कला
कांपेंगे टाइली बुर्ज
और जुर्म की इमारत
जमीन पर आ जाएगी
अपने सैकड़ों स्‍थंभों के साथ

धरती पर
छाती के बल पड़े होंगे हम
कला की पूर्णाहुति में
झुलस चुकी होगी हथेली
नसों का उत्‍ताप हमारा रक्‍त
चू रहा होगा
बूंद बूंद पोरों से
वक्षों के नीचे
कसमसा रही होगी धरती
कुलबुला रहे होंगे बीज
युगों की चट्टान
माटी बन चुकी होगी
हमारी सूर्ख हथेलियों में
उग रहा होगा हमारा चेहरा
जिसकी नीली नीली आंखों में झांककर
पूछ रहे होंगे बच्चे
माँ माँ
यही है कुरुक्षेत्र
यहीं टकराए थे ब्रह्मास्त्र
यहीं गिरा था अभिमन्यु
रक्तश्‍लथ

हमारी अनंत लिप्‍साओं की
पूर्ति का कारक
नहीं होगी प्रकृति
ना ही प्रतिद्वंद्वी होगी
हमारी दासी भी नहीं होगी वह
हम उसे स्वामिनी बनाएंगे अपनी
उसकी नरम कठोर गोद
शय्या होगी हमारी
जहां हमारा आलस्य नहीं
थका हारा श्रम सोएगा
उसके उन्‍हीं हिस्सों को
काम में लाएंगे हम
हमारे नाखूनों की तरह जो
बेजान हो जाएंगे
उसके इशारे समझेंगे
उसकी बाढ़ वहीं से मोड़ेंगे काटेंगे
जहां उसका अनियंत्रित अराजक विस्तार
उसका चेहरा हिंस्र बना रहा होगा

घर ऐसे नहीं होंगे वहां
जहां उम्र को बिसात की तरह बिछाए
बैठे होंगे पिता
और वात्सल्य स्नेही हाथों
अनुभवों के मोहरे चल रहा होगा
जहां ममता के गर्भनाल में
हमारी गर्दनें में फंसाए बैठी माँ
हमारे सुखद इकलौते भविष्य के
सपने बुन रही होगी

एकांतिक सपनों के खजाने
हमारे घर नहीं होंगे
जहां धर्म की शिला पर उगे
वट वृक्ष की जड़े
सुरक्षा के नाम पर
हमारी कोमल देह
जकड़े हुए होंगी
और पाप
कुल्हाड़ी लिए हमारे हाथों को
निहत्था कर रहा होगा
वह हमारे घर नहीं होंगे

भर दिन की धमाचौकड़ी
बच्चों से छीन
उनके बस्‍तों में बोझिल सांझें
नहीं भरने देंगे हम
दूरदर्शनी घोषणाओं के साए में
नहीं कटेंगी रातें
हमारी सुबहें
अखबार के भरोसे नहीं होंगी
कौवे बोलें ना बोलें
अनागत के गुदगुदाते स्वप्न
जगाएंगे हमें
दिशाओं को रंगीन भाषाएं सौंपता
निकला करेगा सूर्य
कोयल की कू कू आहट से चिढ़ते चिढ़ाते
दरख्तों के बल
काट लेंगे हम जलती दोपहरी

कल्पनाओं की कब्रगाहें नहीं होंगी शामे
संय‍म‍ित इच्छाओं की दरगाहें होंगी वह
जहां अमन व सुकून के दिए जला करेंगे

वहां लड़कियां अपना संस्कार
ससुराल जाकर नहीं
पालने से सीखेंगे
और प्रेमियों के प्रतिउत्तर में उनके हाथ
उनकी आंखों में नहीं
खुली हवा में हिलते नजर आएंगे

ये युवक
बत्तखों की चोंच की तरह चॉकलेटी चेहरा
आगे पीछे करने वाले
हर डग सौ बल खाने वाले
इंटरव्यू एक्सपर्ट के सामने
जॉनी वाकर की तरह शर्माने वाले
हाय मॉम डैड जानी उचारती
सड़क पर उग आए चाहबच्चों की जमात
क्या कहेंगे इन्‍हें
हमें युवक तो चाहिए
प्रतिभा ख्वाब और दुस्साहस से भरे
मजबूत पुटठोंवाले बिगड़ैल घोड़ों की तरह
जिस पर वहशी जमाना
जीन कसना चाहे
तो बार-बार धूल चटनी पड़े उसको
और खुमार उतर जाने पर
सधे तो ऐसा
कि ले उड़े उनकी सरहदों के भी पार

आह और धुआं छोड़ने की मशीन
और गलाजत के बसेरे
नहीं होंगे युवक

सीने में अंधड़ों को सधाए
जब वर्तमान की दहलीज पर
अपने नंगे पांव धरेंगे वह
तो पसीने पसीने हो जाएगा
पतझड़ का मौसम
और नन्हे होंठ थरथराता
पैरों को तोलता
घुटनों के बल चलकर
बसंत उनकी बाहों में आ जाएगा

मील के पत्थर से सदातन सिद्धांतों
और परंपराओं के मुखापेक्षी नहीं होंगे सच
भावनाओं की उर्मियां
जहां गतिमान नहीं होंगी
वहां कोई सच नहीं होगा
पत्थर की लकीर सा स्थिर होगा जो भी सच
आगे जिसके तूफान नहीं होगा
शांति नहीं होगी वह
प्यासे शिशु के सूखे अधरों को
दूध की धार से सींचने की
वक्ष को आलोड़ित करती
जो उष्‍म अंत:वेदना होगी
शांति होगी वह
विचार नहीं होगा वह सच
जिसमें भावनाओं की गतिशीलता को त्वरित कर
दिशा निर्देशन की शाश्वत ऊर्जा नहीं होगी
मात्र सनातन होगा जो भी सच
मृत्यु होगा
हमारा लक्ष्य गति होगा
मृत्यु से मृत्यु तक
अनदेखा करता उसे
दृढ़ता से पढ़ता हर कदम
जीवन होगा
और थकान में
मृत्यु और गति के बीच
टेक की तरह
जो थामेगा हमें
भाव शिशुओं के लिए बिछ जाएगा
बिछावन की तरह
हिलराता दुलराता मां की तरह
सपनों की डोर सुलझाएगा
वह दर्शन होगा जीवन का

कान खींच कर पिता की तरह
उठाएगा जो सुबह सुबह
पीठ पर दो धौल दे विदा करेगा आगे को
विचार होगा
वक्त बेवक्त जो दर्शन की गोदी में
अपना गंभीर सिर छुपा
सहज और सौम्‍य होने की चेष्टा करेगा

और युद्ध
अतीत का वह हिस्सा होगा
जहां से हमारा वर्तमान शुरू होगा
या वह भविष्य तक खिंचे
वर्तमान के आखीर में
अपने परिवर्तनशील अस्तित्व की लड़ाई
लड़ रहा होगा
जीवन को निगलने वाली लहरों के रुप में
यत्र तत्र उगने की इजाजत
नहीं दी जाएगी उसे
इन भंवरों को अस्तित्व में आने से रोकने के लिए
संघर्ष हर मोड़ पर अपना मोर्चा खोले रखेगा

सपनों की यह दुनिया अधूरी रहेगी
भविष्य तक खिंचते
इस अधूरे निरंतर वर्तमान की दिशा
उसके भीतर की गति और वेग के द्वारा तय होगी
संगठित गति के विकास से
उर्जा का जो लहरावरण तैयार होगा
वही सीमाएं होंगी हमारी
जिसकी रक्षा में
इरादों की बुलंदी को हथियार की तरह थामे
संतरी सा
खड़ा रहेगा विवेक।

1987