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21:43, 28 जून 2008 का अवतरण
मन से मनको लिख रही हूँ, पाती एक अजानी प्रियतम ! पाती मेँ प्रेम - कहानी !
तुम भी हामी भरते जाना, सुनते सुनते बानी .. फिर कह रही कहानी !
कहुँ, सुनाऊँ, तुमको प्रियतम, था राजा या रानी ? सुनोगे क्या ये कहानी ?
सुनो, एक थी रानी बडी निर्मम ! पर थी वह बडी ही सुँदर ! ज्यूँ बन उपवन की तितली !
गर्वीली, मदमाती, बडी हठीली ! एक था राजा, बडा भोला नादान रखता सब जीवोँ पर प्रेम समान ! बडा बलशाली, चतुर, सुजान !
सुन रहे हो तो हामी भरना अब आगे सुनो कहानी !
भोर भए , उगता जब रवि था, राजा निकल पडता था सुबही को, साथ घोडी लिये वह "मस्तानी" सुनो, सुनो, ये कहानी !
छोड गाँव की सीमा को वह, जँगल पार घनेरे कर के, आया, जहाँ रहती थी रानी ! अब आगे सुनो, कहानी ..
रानी रोज किया करती थी गौरी - व्रत की पूजा, नियम न था कोई दूजा ~
छिप मँदीर की दीवारोँ से, देखी राजा ने रानी - मन करने लगा मनमानी ! किसी तरह पाऊँ मैँ इसको, हठ राजा ने ये ठानी ! वह भी तो था अभिमानी !
पलक झपकते रानी लौटी, लौट चले सखीयोँ के दल मची राजा के दिल मेँ हलचल ! पाणि - ग्रहण प्रस्ताव भेजकर राजा ने देखा मीठा सपना दूर नहीँ होँगेँ दिनी ऐसे, हम जब होँगेँ साजन - सजनी !
रानी ने पर अपमानित करके, ठुकराया उसका प्रस्ताव ! क्या हो, था ही हठी स्वभाव !
आव न देखा, ताव न देखा, राजा ने फिर धावा बोला-- अब तो रानी का आसन डोला ! बँदी बन रानी, तब आईँ राजा के सम्मुख गई लाईँ कारा गृह मेँ भेज दीया कह,
"नहीँ चाहीये, मुझे गुमानी ! ना होगी मेरी ये, रानी ! "
एक वर्ष था बीत चला अब आया श्री पुरी मेँ अब उत्सव ! श्री जग्गनाथ का उत्सव ! रीत यही थी, एक दिवस को, राजा , झाडू देते थे .... मँदिर के सेवक होते थे !
बुढा मँत्री, चतुर सयाना लाया खीँच रानी का बाना कहा, " महाराज, ये भी हैँ प्रभु की दासी, - पर मेरी हैँ महारानी ! "
कहो कैसी लगी कहानी ?
सेवक राजा की ,सेविका से, हुई धूमधाम से शादी-- फिर छमछम बरसा पानी ! मीत हृदय के मिले सुखारे बैठे, सिँहासन, राजा ~ रानी ! हा! कैसी अजब कहानी !
जो प्रभु के मँदिर जन आयेँ, पायेँ नैनन की ज्योति, प्रवाल - माणिक मुक्ता मोती ! यहाँ न हार किसी की होती !
अब कह दो मेरे प्रियतम प्यारे, कर याद मुझे कभी क्या, वहाँ, हैँ आँख तुम्हारीँ रोतीँ? काश! कि, मैँ वहाँ होती !