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+ | बहते झरने-सा | ||
+ | अभिसिंचित होता तन-मन | ||
+ | अतृप्त धरा-सा । | ||
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+ | '''11-मिलन में भी''' | ||
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+ | प्रेम की पराकाष्ठा | ||
+ | तुमसे लिपटी हुई | ||
+ | तुम्हारे पास ही होती हूँ | ||
+ | तब भी तुम्हारी ही | ||
+ | याद में रोती हूँ। | ||
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+ | '''12- तुम क्या जानो ?''' | ||
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+ | तुम वातानुकूलित प्रेमी | ||
+ | मैं नीलांचल की जलधारा | ||
+ | पर्वतों की गोद में | ||
+ | उन्मुक्त बहने का सुख | ||
+ | तुम क्या जानो? | ||
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+ | '''13-पत्थर होती अहल्या''' | ||
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+ | मदमस्त इंद्र | ||
+ | गौतम भी वैसा ही सशंकित क्रुद्ध | ||
+ | किन्तु, राम हो गया तटस्थ द्रष्टा | ||
+ | संभवतः ; स्पर्श करना भूल गया है | ||
+ | इसीलिए शिलाएँ अब | ||
+ | पुनः अहल्या नहीं बन पाती | ||
+ | टूटती-पिसती हैं | ||
+ | हो जाती हैं -धूल। | ||
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+ | '''14 -हे प्रिय!''' | ||
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+ | हे प्रिय! | ||
+ | पुस्तकालय की पुस्तक सी मैं | ||
+ | शीशे की सुन्दर बुक रैक में कैद | ||
+ | तुम मॉडर्न युग के पाठक से | ||
+ | पूरा संसार लिये मोबाइल हाथ में | ||
+ | किन्तु, मेरे चेहरे पर लिखे | ||
+ | शब्दों को पढ़ना तो दूर | ||
+ | मुझ पर पड़ी- धूल भी नहीं झाड़ते ! | ||
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18:08, 11 फ़रवरी 2018 का अवतरण
8-पीड़ा
तुमसे दूर होकर
विरह को जीने में
असहनीय पीड़ा
बार-बार मरने जैसी।
9-फैलाओं अपनी बाँहें
हे प्रिय !
कभी उस आकाश-सी
फैलाओ अपनी बाँहें,
जो धरती की उन्मुक्त गति को
निरंतर देता है प्रिय आधार
जिससे धरती पर
बरसते हैं बादल
आती-जाती हैं ऋतुएँ
ग्रीष्म, वर्षा, शरद
शिशिर, हेमंत और बसंत ...
10-किसी दिन तो
किसी दिन तो
फूटता तुम्हारा प्रेम
पहाड़ से छल-छल
बहते झरने-सा
अभिसिंचित होता तन-मन
अतृप्त धरा-सा ।
11-मिलन में भी
प्रेम की पराकाष्ठा
तुमसे लिपटी हुई
तुम्हारे पास ही होती हूँ
तब भी तुम्हारी ही
याद में रोती हूँ।
12- तुम क्या जानो ?
तुम वातानुकूलित प्रेमी
मैं नीलांचल की जलधारा
पर्वतों की गोद में
उन्मुक्त बहने का सुख
तुम क्या जानो?
13-पत्थर होती अहल्या
मदमस्त इंद्र
गौतम भी वैसा ही सशंकित क्रुद्ध
किन्तु, राम हो गया तटस्थ द्रष्टा
संभवतः ; स्पर्श करना भूल गया है
इसीलिए शिलाएँ अब
पुनः अहल्या नहीं बन पाती
टूटती-पिसती हैं
हो जाती हैं -धूल।
14 -हे प्रिय!
हे प्रिय!
पुस्तकालय की पुस्तक सी मैं
शीशे की सुन्दर बुक रैक में कैद
तुम मॉडर्न युग के पाठक से
पूरा संसार लिये मोबाइल हाथ में
किन्तु, मेरे चेहरे पर लिखे
शब्दों को पढ़ना तो दूर
मुझ पर पड़ी- धूल भी नहीं झाड़ते !