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"मुक्तक / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर

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रेत को मुट्ठी में भर करके  हम  फिसलने नहीं देते ।
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'''रेत को मुट्ठी में भर करके  हम  फिसलने नहीं देते ।
 
वक्त कितना भी हो मुश्किल ,खुद को बदलने नहीं देते॥
 
वक्त कितना भी हो मुश्किल ,खुद को बदलने नहीं देते॥
 
डराएँगे क्या अँधेरे  अपनी बुरी निगाहों से हमें ।
 
डराएँगे क्या अँधेरे  अपनी बुरी निगाहों से हमें ।
फक्र  तारों पर  है जो उजालों को ढलने नहीं देते ॥
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फक्र  तारों पर  है जो उजालों को ढलने नहीं देते ॥'''
 
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बर्फीली कंच रातों में, जब लिहाफों में मचलते हो ।
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'''बर्फीली कंच रातों में, जब लिहाफों में मचलते हो ।
 
चाय की मीठी चुस्कियाँ लेते हुए ज़हर उगलते हो ।
 
चाय की मीठी चुस्कियाँ लेते हुए ज़हर उगलते हो ।
 
जब सिन्दूर सरहद पर खड़ा होता है अडिग पर्वत-सा
 
जब सिन्दूर सरहद पर खड़ा होता है अडिग पर्वत-सा
तब तुम गद्दारों के लिए कैंडिल मार्च  पर निकलते हो ॥
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तब तुम गद्दारों के लिए कैंडिल मार्च  पर निकलते हो ॥'''
 
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सिसकती सर्द रातों का मेरा सिंगार लौटा दो।
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'''सिसकती सर्द रातों का मेरा सिंगार लौटा दो।
 
बूढ़े माँ-पिताजी की वो करुण मनुहार लौटा दो ॥
 
बूढ़े माँ-पिताजी की वो करुण मनुहार लौटा दो ॥
 
मनुज बनकर दानवों की ओ  वकालत करने वालों !
 
मनुज बनकर दानवों की ओ  वकालत करने वालों !
मेरे भरतू का बचपन, पिता का दुलार लौटा दो॥
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मेरे भरतू का बचपन, पिता का दुलार लौटा दो॥'''
 
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18:07, 20 फ़रवरी 2018 का अवतरण

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1
रेत को मुट्ठी में भर करके हम फिसलने नहीं देते ।
वक्त कितना भी हो मुश्किल ,खुद को बदलने नहीं देते॥
डराएँगे क्या अँधेरे अपनी बुरी निगाहों से हमें ।
फक्र तारों पर है जो उजालों को ढलने नहीं देते ॥
2
बर्फीली कंच रातों में, जब लिहाफों में मचलते हो ।
चाय की मीठी चुस्कियाँ लेते हुए ज़हर उगलते हो ।
जब सिन्दूर सरहद पर खड़ा होता है अडिग पर्वत-सा
तब तुम गद्दारों के लिए कैंडिल मार्च पर निकलते हो ॥
3
सिसकती सर्द रातों का मेरा सिंगार लौटा दो।
बूढ़े माँ-पिताजी की वो करुण मनुहार लौटा दो ॥
मनुज बनकर दानवों की ओ वकालत करने वालों !
मेरे भरतू का बचपन, पिता का दुलार लौटा दो॥