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"अकेली स्त्री / प्रज्ञा रावत" के अवतरणों में अंतर

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21:48, 27 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण

अकेली स्त्री पृथ्वी ही तो है
निरन्तर गतिमान
अपने अक्ष पर
जिसके सीधे खड़े होने की कोशिश में
थर्राने लगती है
समूची मानव-प्रकृति

उसके थोड़ा झुके रहने पर ही तो
पहाड़ तना रह पाया है
और समुद्र शान्त
बार-बार घेरे मिटाती
और बनाती वो
सब जानती है
कि क्यों हवा कभी इतनी बदहवास
हो जाती है
कि क्यों वक़्त-बेक़्त
उसके स्वाभिमान को छेड़ा जाता है
क्यों वो कभी थोड़ा फूटते ही
जमा देती है ख़ुद को वहीं
और फिर दरकती रहती है
भीतर ही भीतर...

असंख्य परतें टकराती ख़ुद-ब-ख़ुद
हर बार समझौता-सी करतीं
अपने आप से
हो जाती हैं गम्भीर... शान्त...

एक अलग चोले में स्त्री
फिर निकल पड़ती है
उम्मीद से लबरेज़ एक
नई दुनिया बनाने।