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"जो कह न सके सच वो महज़ नाम का शाइर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर
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जो कह न सके सच वो महज़ नाम का शाइर।
बदनाम न हो जाय तो किस काम का शाइर।
इंसान का, मासूम का, मज़्लूम का कहिए,
अल्लाह का शाइर हूँ न मैं राम का शाइर।
कुछ भी हो सज़ा सच की है मंज़ूर पर ऐ वक़्त,
मुझको न बनाना कभी हुक्काम का शाइर।
मज़्लूम के दुख दर्द से अश’आर कहूँगा,
कहता है जमाना तो कहे वाम का शाइर।
बच्चे हैं मेरे शे’र तो मत्ला है मेरी जान,
कहते हैं सुख़नफ़ह्म मुझे शाम का शाइर।