भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"वक़्त क़साई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=पूँजी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

22:41, 4 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण

वक़्त क़साई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ।
जाने कितने टुकड़ों में किस-किस के साथ गया हूँ।

हल्के आघातों से भी मैं टूट बिखर जाता हूँ।
इतनी बार हुआ हूँ ठंडा इतनी बार तपा हूँ।

जाने क्या आकर्षण, क्या जादू होता है इनमें,
झूटे वादों की क़ीमत पर मैं हर बार बिका हूँ।

अब दोनों में कोई अन्तर समझ नहीं आता है,
सुख में दुख में आँसू बनकर इतनी बार गिरा हूँ।

मुझमें ही शैतान कहीं है और कहीं है इन्साँ,
माने या मत माने दुनिया मैं ही कहीं ख़ुदा हूँ।