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"खदबदै चेतना री चौघट मनभावण राग! / मोनिका गौड़" के अवतरणों में अंतर

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17:55, 8 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण

सोचूं
कै चितारूं म्हारी मनगत
कविता रै खोळियै
कै उगेरूं कोई गीत
सबदां रै तानपुरै
पण किण विध परकासूं
म्हारो काळजो
हरख लिखूं
तो आंख्यां साम्हीं पसर जावै
अणथाग अंधारो,
सपनां नैं बतळाऊं
तो रोवै आतमा
मंगसा पड़ै आखर
हियै रै हबोळां...
आस रो विस्वास रचतां
पीड़ रचूं
तो सबद फोर लेवै पूठ
चिरळाटी मार,
सांपरतै आय ऊभा होवै
कळीज्योड़ै काळजै रा मरसिया....

रंग-जात रै संचै ढळिया
रुझियोड़ै-बचियोड़ै मिनख नैं बिड़दाऊं
तो छेवट किण ढब?
उफणती छातियां में
बसबसीजती रूह
समाजू रीतां
अर संस्कारां रो
भारियो ऊंच्यां,
आयठण हुवती जूण
खदबदै चेतना री चौघट,
तद किण ढाळै उगेरूं राग
कै रचूं कविता?

अंधारै री उधारी चुकावतो
मिनखपणो
जद तांई नीं पूगैला
आस-किरण
उण पाणी चूंवतै गुंभारियै तांई
तद तांई
नीं रचीजैली सांच री आंच
नीं उगेरीजैली
कोई मनभावण राग!