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"ज़िन्दगी / कल्पना सिंह-चिटनिस" के अवतरणों में अंतर
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हवाएं अपनी सांस रोके
दिशाएं विक्षिप्त सी
अलसाता हुआ उठता
कारखाने की चिमनी से धुआं।
हर शै पर एक असहनीय बोझ,
जिसके तले दबा आज का इंसान
हर रोज उठता है,
ज़िन्दगी का बोझ ढोते चलता है,
और पूछता है अपने आप से
क्या यही है ज़िन्दगी?