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"सागर के तट तक / राहुल कुमार 'देवव्रत'" के अवतरणों में अंतर

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कि असंवाद एक धीमा जहर है
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मैं! देखता हूँ
यहाँ धीरे-धीरे मरते जाते हैं सम्बंध
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सुबह की ताजगी में उठकर
...घुटकर
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भास्कर की तरफ
और बंद हो जाती हैं पड़तालें
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नमस्कार की मुद्रा में
 
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बंद आंखें बुदबुदाते होंठ संकल्पित मन
क्या तुमने देखा है
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प्रायः नित्य ही
कई तरह से चीजों का मरना?
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निश्चय ही प्रबलता आ जाती है  
 
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एवम
सईं सांझ तुम्हारा आना...जाना
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पहले से ज़्यादा ओजमय हो जाता है ललाट
अब नहीं होता
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मैं महसूस करता हूँ ।कि
 
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शरीर का सबसे अर्थपूर्ण तत्व है ... प्राण
कि चुभना संवेदना की निशानी है
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किताबों में भी कहीं लिखा था शायद
और यह भी कि तुम जिंदा हो
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क्योंकि बेजान शरीर के लिए जितना बेमानी रूखा उतना ही रसमय
 
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फिर यह भी तो है
क्या तुम्हें भी महसूस होता है इन दिनों
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कि सत्य को सत्य
...चीजों का चुभना?
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और असत् को असत् परिस्थिति बनाती है
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जिद पर आ जाए
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तो उलट भी सकती है
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नहीं भी मान सकते हैं
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क्योंकि कुछ चीजें ऐसी होती हैं
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जिसे आप तब तक अमान्य समझते हैं
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कि जब तक स्वयं पर घट न जाए
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शायद पृथ्वी पर
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अपने जन्म के प्रयोजन को लेकर भी
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आश्वस्त नहीं हैं
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आप अपने-अपने हिसाब से समझते हैं
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आजादी भी है  
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पहले ही कह चुका हूँ
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सत्य को लेकर दुविधा में न रहें
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क्योंकि जो दुविधा खड़ी करे
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कुछ और हो तो हो
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सत्य नहीं हो सकता
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महसूस कीजिए कि  
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आपके समक्ष वह सब शुरू हो  
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एक के बाद एक
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जो अतिशय भयावह और क्रूर हो
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आप ही पर छोड़े दे रहा हूँ
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कमतर न कीजिएगा
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संभव है ज्ञानी संयत रहे
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परमार्थी की आंखों से खून टपक पड़े
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किंतु उसको क्या कहेंगे
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जो प्रयासरत हो गया है स्वयमेव
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यह जानते हुए कि नदी की धारा भी रुकी है कभी
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मैं! चाहता हूँ
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कि ज़िन्दगी के सपाट सूखे नमीविहीनजमीन पर
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अकेले चलते-चलते
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जब भय से मेरे कदम जड़ होने लगे
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रूखे लोग रुखे तबीयत रूखे व्यवहार का कसाव अपनी जकड़न से
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रुद्ध कर दे मेरी आवाज
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तुम आओ
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सजल कादंबिनी की घनी छाँह की भांति छाकर
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मेरे पैरों में न खत्म होने वाली शक्ति भर दो
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लिपटकर मेरे तन बदन से
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हवा हो जाओ
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और मेरी मिट्टी के कण-कण को रुमानी कर दो
 
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18:16, 12 मई 2018 के समय का अवतरण

मैं! देखता हूँ
सुबह की ताजगी में उठकर
भास्कर की तरफ
नमस्कार की मुद्रा में
बंद आंखें बुदबुदाते होंठ संकल्पित मन
प्रायः नित्य ही
निश्चय ही प्रबलता आ जाती है
एवम
पहले से ज़्यादा ओजमय हो जाता है ललाट
मैं महसूस करता हूँ ।कि
शरीर का सबसे अर्थपूर्ण तत्व है ... प्राण
किताबों में भी कहीं लिखा था शायद
क्योंकि बेजान शरीर के लिए जितना बेमानी रूखा उतना ही रसमय
फिर यह भी तो है
कि सत्य को सत्य
और असत् को असत् परिस्थिति बनाती है
जिद पर आ जाए
तो उलट भी सकती है
नहीं भी मान सकते हैं
क्योंकि कुछ चीजें ऐसी होती हैं
जिसे आप तब तक अमान्य समझते हैं
कि जब तक स्वयं पर घट न जाए
शायद पृथ्वी पर
अपने जन्म के प्रयोजन को लेकर भी
आश्वस्त नहीं हैं
आप अपने-अपने हिसाब से समझते हैं
आजादी भी है
पहले ही कह चुका हूँ
सत्य को लेकर दुविधा में न रहें
क्योंकि जो दुविधा खड़ी करे
कुछ और हो तो हो
सत्य नहीं हो सकता
महसूस कीजिए कि
आपके समक्ष वह सब शुरू हो
एक के बाद एक
जो अतिशय भयावह और क्रूर हो
आप ही पर छोड़े दे रहा हूँ
कमतर न कीजिएगा
संभव है ज्ञानी संयत रहे
परमार्थी की आंखों से खून टपक पड़े
किंतु उसको क्या कहेंगे
जो प्रयासरत हो गया है स्वयमेव
यह जानते हुए कि नदी की धारा भी रुकी है कभी
मैं! चाहता हूँ
कि ज़िन्दगी के सपाट सूखे नमीविहीनजमीन पर
अकेले चलते-चलते
जब भय से मेरे कदम जड़ होने लगे
रूखे लोग रुखे तबीयत रूखे व्यवहार का कसाव अपनी जकड़न से
रुद्ध कर दे मेरी आवाज
तुम आओ
सजल कादंबिनी की घनी छाँह की भांति छाकर
मेरे पैरों में न खत्म होने वाली शक्ति भर दो
लिपटकर मेरे तन बदन से
हवा हो जाओ
और मेरी मिट्टी के कण-कण को रुमानी कर दो