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मैं! देखता हूँ सुबह कदमों की ताजगी में उठकर आहट है मादक भास्कर मादक है पायल की तरफ छम छम नमस्कार की मुद्रा में बंद आंखें बुदबुदाते होंठ संकल्पित मन प्रायः नित्य ही निश्चय ही प्रबलता आ जाती है लोच भरी बंकिम दृष्टि एवम बातें भी तेरी भावप्रवणपहले से ज़्यादा ओजमय तुम हो जाता प्रिय सभी प्रिय सुभगेअभिलाषा है ललाट स्वच्छंद मिलन मैं महसूस करता हूँ ।कि निष्कपट प्रेम आतुर प्रेमी शरीर का सबसे अर्थपूर्ण तत्व तुझको देता है ... प्राण आमंत्रणकिताबों में भी कहीं लिखा था शायद ऐसा सुनता जब तुम आते क्योंकि बेजान शरीर के लिए जितना बेमानी रूखा उतना ही रसमय हो जाते हैं पट सतरंगी फिर यह भी तो उठती है सिहरन सी मन में कि सत्य को सत्य और असत् को असत् परिस्थिति बनाती हो जाता है मुख सिंदूरी जिद पर आ जाए लो देखो तेरी आहट पा तो उलट भी सकती क्या हवा चली है सनन सनन नहीं भी मान सकते हैं स्वीकार करो तुम आमंत्रण क्योंकि कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिसे आप मेरे प्रदेश में तब तक अमान्य समझते हैं आनाकि जब तक स्वयं पर घट हो जाए शायद पृथ्वी कहीं पर हरियाली अपने जन्म के प्रयोजन को लेकर जब होंगे कोयल भी गायब आश्वस्त नहीं हैं होगी सूखी पत्ती डाली आप अपने-अपने हिसाब से समझते हैं तब तुम आना री तन्वंगी आजादी भी है री कोमलमन री श्याम वदनपहले ही कह चुका हूँ सत्य को लेकर दुविधा में न रहें क्योंकि जो दुविधा खड़ी करे कुछ और हो तो होसत्य नहीं हो सकता महसूस कीजिए कि आपके समक्ष वह सब शुरू हो एक के बाद एक जो अतिशय भयावह और क्रूर हो आप ही पर छोड़े दे रहा हूँ कमतर न कीजिएगा संभव है ज्ञानी संयत रहे परमार्थी की आंखों तुम्हें अभी से खून टपक पड़े आमंत्रणकिंतु उसको क्या कहेंगे जो प्रयासरत हो गया है स्वयमेव यह जानते हुए कि नदी ऐसा सुनता दुख की धारा भी रुकी है कभी मैं! चाहता हूँ कि ज़िन्दगी के सपाट सूखे नमीविहीनजमीन पर अकेले चलते-चलते घड़ियां जब भय से मेरे कदम जड़ होने लगे जब आती है जीवन में रूखे लोग रुखे तबीयत रूखे व्यवहार का कसाव अपनी जकड़न से क्रूर कुटिल मतलबपरस्तरुद्ध कर दे मेरी आवाज तब आग लगाते हैं मन में तुम आओ सजल कादंबिनी की घनी छाँह की भांति छाकर मेरे पैरों ऐसे कुसमय में न खत्म होने वाली शक्ति भर दो स्वयं स्वतःलिपटकर मेरे तन बदन से हवा हो जाओ तुम आना ले चंचल चितवनऔर मेरी मिट्टी के कण-कण को रुमानी कर दो मिले ना मिले आमंत्रण
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