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"मन की बात / राहुल कुमार 'देवव्रत'" के अवतरणों में अंतर

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मैं! देखता हूँ
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कदमों की आहट है मादक
सुबह की ताजगी में उठकर
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मादक है पायल की छम छम
भास्कर की तरफ
+
है लोच भरी बंकिम दृष्टि
नमस्कार की मुद्रा में
+
बातें भी तेरी भावप्रवण
बंद आंखें बुदबुदाते होंठ संकल्पित मन
+
तुम हो प्रिय सभी प्रिय सुभगे
प्रायः नित्य ही
+
अभिलाषा है स्वच्छंद मिलन
निश्चय ही प्रबलता आ जाती है  
+
निष्कपट प्रेम आतुर प्रेमी
एवम
+
तुझको देता है आमंत्रण
पहले से ज़्यादा ओजमय हो जाता है ललाट
+
ऐसा सुनता जब तुम आते
मैं महसूस करता हूँ ।कि
+
हो जाते हैं पट सतरंगी
शरीर का सबसे अर्थपूर्ण तत्व है ... प्राण
+
उठती है सिहरन सी मन में
किताबों में भी कहीं लिखा था शायद
+
हो जाता है मुख सिंदूरी
क्योंकि बेजान शरीर के लिए जितना बेमानी रूखा उतना ही रसमय
+
लो देखो तेरी आहट पा
फिर यह भी तो है  
+
क्या हवा चली है सनन सनन
कि सत्य को सत्य
+
स्वीकार करो तुम आमंत्रण
और असत् को असत् परिस्थिति बनाती है  
+
मेरे प्रदेश में तब आना
जिद पर आ जाए
+
जब हो कहीं पर हरियाली
तो उलट भी सकती है  
+
जब होंगे कोयल भी गायब
नहीं भी मान सकते हैं
+
होगी सूखी पत्ती डाली
क्योंकि कुछ चीजें ऐसी होती हैं
+
तब तुम आना री तन्वंगी
जिसे आप तब तक अमान्य समझते हैं
+
री कोमलमन री श्याम वदन
कि जब तक स्वयं पर घट जाए
+
है तुम्हें अभी से आमंत्रण
शायद पृथ्वी पर  
+
ऐसा सुनता दुख की घड़ियां
अपने जन्म के प्रयोजन को लेकर भी  
+
जब जब आती है जीवन में
आश्वस्त नहीं हैं
+
क्रूर  कुटिल  मतलबपरस्त
आप अपने-अपने हिसाब से समझते हैं
+
तब आग लगाते हैं मन में
आजादी भी है
+
ऐसे कुसमय में स्वयं स्वतः
पहले ही कह चुका हूँ
+
तुम आना ले चंचल चितवन
सत्य को लेकर दुविधा में न रहें
+
मिले ना मिले आमंत्रण
क्योंकि जो दुविधा खड़ी करे
+
कुछ और हो तो हो
+
सत्य नहीं हो सकता
+
महसूस कीजिए कि
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आपके समक्ष वह सब शुरू हो
+
एक के बाद एक
+
जो अतिशय भयावह और क्रूर हो
+
आप ही पर छोड़े दे रहा हूँ
+
कमतर न कीजिएगा
+
संभव है ज्ञानी संयत रहे
+
परमार्थी की आंखों से खून टपक पड़े
+
किंतु उसको क्या कहेंगे
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जो प्रयासरत हो गया है स्वयमेव
+
यह जानते हुए कि नदी की धारा भी रुकी है कभी
+
मैं! चाहता हूँ
+
कि ज़िन्दगी के सपाट सूखे नमीविहीनजमीन पर
+
अकेले चलते-चलते
+
जब भय से मेरे कदम जड़ होने लगे
+
रूखे लोग रुखे तबीयत रूखे व्यवहार का कसाव अपनी जकड़न से
+
रुद्ध कर दे मेरी आवाज
+
तुम आओ
+
सजल कादंबिनी की घनी छाँह की भांति छाकर
+
मेरे पैरों में न खत्म होने वाली शक्ति भर दो
+
लिपटकर मेरे तन बदन से
+
हवा हो जाओ
+
और मेरी मिट्टी के कण-कण को रुमानी कर दो
+
 
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18:41, 12 मई 2018 का अवतरण

कदमों की आहट है मादक
मादक है पायल की छम छम
है लोच भरी बंकिम दृष्टि
बातें भी तेरी भावप्रवण
तुम हो प्रिय सभी प्रिय सुभगे
अभिलाषा है स्वच्छंद मिलन
निष्कपट प्रेम आतुर प्रेमी
तुझको देता है आमंत्रण
ऐसा सुनता जब तुम आते
हो जाते हैं पट सतरंगी
उठती है सिहरन सी मन में
हो जाता है मुख सिंदूरी
लो देखो तेरी आहट पा
क्या हवा चली है सनन सनन
स्वीकार करो तुम आमंत्रण
मेरे प्रदेश में तब आना
जब हो न कहीं पर हरियाली
जब होंगे कोयल भी गायब
होगी सूखी पत्ती डाली
तब तुम आना री तन्वंगी
री कोमलमन री श्याम वदन
है तुम्हें अभी से आमंत्रण
ऐसा सुनता दुख की घड़ियां
जब जब आती है जीवन में
क्रूर कुटिल मतलबपरस्त
तब आग लगाते हैं मन में
ऐसे कुसमय में स्वयं स्वतः
तुम आना ले चंचल चितवन
मिले ना मिले आमंत्रण