भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मुक्तक / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कविता भट्ट |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavi...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 6 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
{KKGlobal}}
+
 
 +
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=कविता भट्ट
 
|रचनाकार=कविता भट्ट
पंक्ति 8: पंक्ति 9:
 
<poem>
 
<poem>
 
1
 
1
रेत को मुट्ठी में भर करके  हम  फिसलने नहीं देते ।
+
'''रेत को मुट्ठी में भर करके  हम  फिसलने नहीं देते ।
 
वक्त कितना भी हो मुश्किल ,खुद को बदलने नहीं देते॥
 
वक्त कितना भी हो मुश्किल ,खुद को बदलने नहीं देते॥
 
डराएँगे क्या अँधेरे  अपनी बुरी निगाहों से हमें ।
 
डराएँगे क्या अँधेरे  अपनी बुरी निगाहों से हमें ।
फक्र तारों पर  है जो उजालों को ढलने नहीं देते ॥
+
फ़ख्र तारों पर  है जो उजालों को ढलने नहीं देते ॥'''
 
2
 
2
बर्फीली कंच रातों में, जब लिहाफों में मचलते हो ।
+
'''बर्फीली कंच रातों में, जब लिहाफों में मचलते हो ।
 
चाय की मीठी चुस्कियाँ लेते हुए ज़हर उगलते हो ।
 
चाय की मीठी चुस्कियाँ लेते हुए ज़हर उगलते हो ।
 
जब सिन्दूर सरहद पर खड़ा होता है अडिग पर्वत-सा
 
जब सिन्दूर सरहद पर खड़ा होता है अडिग पर्वत-सा
तब तुम गद्दारों के लिए कैंडिल मार्च  पर निकलते हो ॥
+
तब तुम गद्दारों के लिए कैंडिल मार्च  पर निकलते हो ॥'''
 
3
 
3
सिसकती सर्द रातों का मेरा सिंगार लौटा दो।
+
'''सिसकती सर्द रातों का मेरा सिंगार लौटा दो।
 
बूढ़े माँ-पिताजी की वो करुण मनुहार लौटा दो ॥
 
बूढ़े माँ-पिताजी की वो करुण मनुहार लौटा दो ॥
 
मनुज बनकर दानवों की ओ  वकालत करने वालों !
 
मनुज बनकर दानवों की ओ  वकालत करने वालों !
मेरे भरतू का बचपन, पिता का दुलार लौटा दो॥
+
मेरे भरतू का बचपन, पिता का दुलार लौटा दो॥'''
 +
4
 +
'''सूखा खेत बरसती बदली हूँ मैं'''
 +
आसुरी शक्तियों पर बिजली हूँ मैं ।
 +
निकलने तो दीजिए मुझे नीड़ से
 +
ये मत पूछना कि क्यों मचली हूँ मैं ॥
 +
5
 +
'''फूल -पाँखुरी भी हूँ , तितली हूँ मैं'''
 +
उमड़े तूफ़ानों से निकली हूँ मैं ।
 +
असीम अम्बर में लहराने तो दो
 +
ये कभी मत कहना कि पगली हूँ मै॥
 +
6
 +
'''गिरी , हौसलों से सँभली हूँ मैं'''
 +
तभी तो यहाँ तक निकली हूँ मैं ।
 +
शिखर पर पताका फहराने  दो
 +
अभी तो बस घर से चली हूँ मैं ॥
 +
7
 +
'''गहन हुआ अँधियार'''
 +
प्रियतम मन के द्वार ।
 +
धरो प्रेम का दीप
 +
कर दो कुछ उपकार ।
 +
8
 +
'''नीरव मन के  द्वार'''
 +
अँसुवन की है धार।
 +
छू  प्रेम की वीणा
 +
झंकृत कर दो तार ॥
 
<poem>
 
<poem>
 +
'''

07:28, 16 मई 2018 के समय का अवतरण

1
रेत को मुट्ठी में भर करके हम फिसलने नहीं देते ।
वक्त कितना भी हो मुश्किल ,खुद को बदलने नहीं देते॥
डराएँगे क्या अँधेरे अपनी बुरी निगाहों से हमें ।
फ़ख्र तारों पर है जो उजालों को ढलने नहीं देते ॥
2
बर्फीली कंच रातों में, जब लिहाफों में मचलते हो ।
चाय की मीठी चुस्कियाँ लेते हुए ज़हर उगलते हो ।
जब सिन्दूर सरहद पर खड़ा होता है अडिग पर्वत-सा
तब तुम गद्दारों के लिए कैंडिल मार्च पर निकलते हो ॥
3
सिसकती सर्द रातों का मेरा सिंगार लौटा दो।
बूढ़े माँ-पिताजी की वो करुण मनुहार लौटा दो ॥
मनुज बनकर दानवों की ओ वकालत करने वालों !
मेरे भरतू का बचपन, पिता का दुलार लौटा दो॥
4
सूखा खेत बरसती बदली हूँ मैं
आसुरी शक्तियों पर बिजली हूँ मैं ।
निकलने तो दीजिए मुझे नीड़ से
ये मत पूछना कि क्यों मचली हूँ मैं ॥
5
फूल -पाँखुरी भी हूँ , तितली हूँ मैं
उमड़े तूफ़ानों से निकली हूँ मैं ।
असीम अम्बर में लहराने तो दो
ये कभी मत कहना कि पगली हूँ मै॥
6
गिरी , हौसलों से सँभली हूँ मैं
तभी तो यहाँ तक निकली हूँ मैं ।
शिखर पर पताका फहराने दो
अभी तो बस घर से चली हूँ मैं ॥
7
गहन हुआ अँधियार
प्रियतम मन के द्वार ।
धरो प्रेम का दीप
कर दो कुछ उपकार ।
8
नीरव मन के द्वार
अँसुवन की है धार।
छू प्रेम की वीणा
झंकृत कर दो तार ॥