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|रचनाकार=राजेराम भारद्वाज
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पंडित राजेराम ग्रंथावली  ==आमुख ==
इस आधुनिकरण के वर्तमान दौर मे सुर्यकवि पण्डित लख्मीचंद व उनकी प्रणाली से सम्बंधित कवियों के भजन व रागनी आज भी हरियाणा व समीपवर्ती क्षेत्रों अर्थात अन्य निकटवर्ती प्रदेशों के लोगों द्वारा बड़े चाव एवं भाव से गाएँ और सुने जाते है। लोक-जीवन व लोक-साहित्य मे उनके व उनकी प्रणाली से सम्बंधित अन्य कवियों जैसी लोकप्रियता एंव ख्याति किन्हीं अन्य लोककवियों को नहीं मिली। फिर भी न जाने क्यों, उनकी प्रणाली के बहुत से लोक-कवियों का 'हरियाणवी लोक-साहित्य' तक प्रमाणिक रूप से प्रकाशित नहीं हो पाया। इस प्रकार उन्हीं लोककवियों मे से एक चर्चित व महान लोककवि है- 'पण्डित राजेराम भारद्वाज संगीताचार्य' जो सुर्यकवि पंडित लख्मीचंद जी के परम शिष्य व सुप्रसिद्ध सांगी श्री मांगेराम, गाँव पाणंछी, जिला सोनीपत वाले के शिष्य है- जिनका लोकरंजक सांग-साहित्य अब तक प्रमाणिक रूप से प्रकाशित नहीं हो पाया। फिर यही अभाव मुझे और पंडित राजेराम काव्य के कायल अनेक लोगों को बहुत अखरता रहा। इसलिए इस अभाव को नष्ट करने के लिए मैंने श्री राजेराम भारद्वाज के संग मिलकर एक योजना बनाई और फिर पंडित राजेराम संगीताचार्य जी की सभी रचनाओं को 'प. राजेराम ग्रंथावली' के रूप मे प्रकाशित करने का निर्णय लिया। उसके बाद फिर उन्होंने इस ग्रंथावली के संकलन/संपादन/प्रकाशन का कार्यभार मुझे सौंपा, जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार करके खुद को धन्य माना।
सन्दीप कौशिक,
==भूमिका==
सामान्य मनुष्य की तरह साहित्यकार भी सामाजिक प्राणी है। एक साहित्यकार और सामान्य व्यक्ति में अंतर सिर्फ इतना है कि सामान्य व्यक्ति अनुभव तो करता है, लेकिन उसमें अपने अनुभव को शब्दों में व्यक्त करने की कला नहीं होती है, पर साहित्यकार जो अनुभव करता है, उसे शब्दों में व्यक्त कर सकता है। वास्तव में अभिव्यक्ति की यह कुशलता ही एक साहित्यकार को सामान्य व्यक्ति से अलग करती है।
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==संक्षिप्त जीवन परिचय:-==
पं. राजेराम जी का जन्म 01 जनवरी, सन 1950 ई0 (वार-रविवार, तिथि-त्रयोदशी, मास-पोष, शुक्ल पक्ष- बदी, विक्रम-संवत 2006) को गांव- लोहारी जाटू, जिला- भिवानी (हरियाणा) के एक मध्यम वर्गीय 'गौड़ ब्राह्मण परिवार' मे हुआ। इनके पिता का नाम पं. तेजराम शर्मा व माता का नाम ज्ञान देवी था, जो 30 एकड़ जमीन के मालिक थे और इसी भूमि पर कृषि करके अपने समस्त परिवार का भरण-पोषण करते थे। ये चार भाई थे- जिनमे बड़े का नाम औमप्रकाश, सत्यनारायण, राजेराम, कृष्ण जी। पं. राजेराम 21-22 वर्ष की उम्र में गांव खरक कलां.भिवानी में श्रीमती भतेरी देवी के साथ वैवाहिक बंधन मे बंधकर उन्होंने तीन लडको को जन्म दिया। फिर जब पंडित राजेराम कुछ पढने योग्य हुए तो कुछ समय स्कुल मे भेजकर बाद मे पशुचारण का कार्य सौंपा गया, परन्तु गीत-संगीत की लालसा उनमे बचपन से ही थी। इसलिए ग्वालों-पाळियों के साथ-साथ घूमते हुए, उनके मुखाश्रित से हुए गीतों की पंक्तियों को गुन-गुनाकर समय यापन करते-रहते थे। उसके बाद 10-12 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें कर्णरस एवं गीत श्रवण की ऐसी ललक लगी कि अपने गाँव और आसपास की तो बात ही क्या, वे कोसों-मीलों दूर जाकर भी सांगी-भजनियों के कर्ण-रस द्वारा उनके कंठित भावों का आनंद को अपने अन्दर समाहित करते रहे। फिर उम्र बढ़ने के साथ-साथ सांग के प्रति उनकी आसक्त भावना मे इस प्रकार वृद्धि हुई कि सांग देखने के लिए बिना बताएं और लड़-झगड़कर कई-कई दिनों तक घर से गायब रहने लगे। इस प्रकार सांग से लालायित उनका कुछ जीवन अपने जन्मभूमि से अलगाव मे ही रहा। इन्ही दिनों फिर पंडित राजेराम जी के जीवन मे एक नए अध्याय के अंकुर अंकुरित हुए। सौभाग्य एवं सयोंगवश फिर किशोरायु राजेराम 14 वर्ष की आयु मे सन 1964 मे एक दिन सुबह-सुबह ही बिना बताये घर से सुर्यकवि पंडित लख्मीचंद के परम शिष्य सुप्रसिद्ध सांगी पंडित मांगेराम का सांग सुनने के लिए गाँव-पांणछी, जिला-सोनीपत (हरियाणा) मे ही पहुँच गए, क्यूंकि बचपन से ही गाने-बजाने के शौक के कारण वे पंडित मांगेराम जी के सांगों को सुनने के बड़े ही दीवाने थे। इसलिए बचपन से ही गाने-बजाने चाव एवं लगाव के कारण उस समय के सुप्रसिद्द सांगी पंडित मांगेराम जी के प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक था। फिर उस दिन पंडित मांगेराम जी ने सांग-मंचन करते हुए उनकी सरस्वतिमयी कंठ-माधुर्य ने उस किशोरायु राजेराम का ऐसा मन मोह लिया, कि वहीँ पे उन्होंने पंडित मांगेराम जी को अपना गुरु धारण करके उसी समय उनके सांग बेड़े मे शामिल हो गए। फिर पंडित राजेराम एक-दो दिन के बाद वहीँ से गुरु मांगेराम के साथ प्रथम बार उनके सांगी-बेड़े मे शामिल होकर गाँव खाण्डा-सेहरी मे सांग मंचन के लिए चले गए। उस दिन के बाद फिर गुरु मांगेराम ने अपने शिष्य बालक राजेराम की उम्र के लिहाज से उनकी जबरदस्त स्मरण शक्ति एंव सांगीत कला की मजबूत पकड़ को देखते हुए उन्होंने अपनी गुरु कृपा से बहुत जल्द ही इस साहित्यिक कला मे निपुण कर दिया। फिर अपने गुरु मांगेराम की इस बहुत ही सहजता एवं कोमल हर्दयता को देखकर अपनी गीत-संगीत की प्यास को बुझाने हेतु वे अपने गुरु मांगेराम जी के साथ ही रहने लगे। उसके बाद उन्होंने 6 महीने तक पूरी निष्ठां एवं श्रद्धा से गुरु की सेवा करके गायन-कला मे प्रवीण होकर ही अपनी इस सतत साधना और संगीत की आत्मीय पिपासा को पूरा किया। इस प्रकार फिर गुरु मांगेराम के सत्संग से शिष्य राजेराम भारद्वाज अपनी संगीत, गायन, वादन और अभिनय कला मे बहुत जल्द ही पारंगत हो गए। इस प्रकार पं0 राजेराम लगभग 6 महीने तक गुरु मांगेराम के संगीत-बेड़े में रहे। उसके बाद प्रथम बार इन्होंने भजन पार्टी सन् 1978 ई0 से 1980 तक लगभग 3 वर्ष रखी। फिर वे किसी कारणवश अपने भजन-पार्टी को छोड़ गए, परन्तु साहित्य रचना और गायन कार्य शुरू रखा, जिसकों उन्होंने इस कार्य को आज तक विराम नहीं दिया।
==व्यक्तित्व:-==
पंडित राजेराम भारद्वाज एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उनके एक घनिष्ठ प्रेमी एवं कला के कायल डॉ॰ शिवचरण शर्मा (जो सर्वप्रथम प्रकाशित 'हरियाणा के कविसुर्य लख्मीचंद' पुस्तक के संपादक श्री के.सी. शर्मा- आई.ऐ.एस. ऑफिसर के छोटे सगे भाई है) जो गाँव लोहारी जाटू, भिवानी (हरियाणा) निवासी है, जिनको स्वयं सन 1991 मे हरियाणा लोक साहित्य पर पी.एच.डी. करने का गौरव प्राप्त हैं। उन्होंने पंडित राजेराम के संबंध मे कितना ही उचित कहा है कि जो पंडित राजेराम को एक साधारण कवि या सांगी समझते है, वे अल्पबुद्धि जीव है। वे केवल एक सशक्त कवि और सांगी ही नहीं, अपितु एक बहुत ही साधारण व्यक्तित्व के साथ-साथ एक अदभुत साहित्य एवं संगीत कला के, इस हरियाणवी लोक-साहित्य मे बहुत बड़े सहयोगी भी है, जो इस आधुनिक युग के नवकवियों के लिए एक जीवन्त मिशाल है। पंडित राजेराम गोरे रंग के साथ-साथ एक लम्बे-ऊँचे कद के धनी है और दूसरी तरफ इनकी वेशभूषा धोती-कुर्ता व साफा (तुर्हे वाला खंडका) प्रतिभा में चार चांद लगा देती है। इनका सादा जीवन व रहन-सहन एक अमूल्य आभूषण हैं, जो इतने प्रतिभावान होते हुए भी साधुवाद की तरह जरा-सा भी अहम भाव नहीं है। उनका यह साधुवाद चरित्र हम उनकी निम्नलिखित कुछ पंक्तियों मे देख सकते है।
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==साहित्यिक रूचि:-==
वैसे तो पं. राजेराम की शिक्षा प्रारम्भिक स्तर तक ही हो पाई थी और प्रारम्भ में खेती-बाड़ी का काम किया करते थे तथा गांव लोहारी जाटू में अपने गुजारे लायक ही जमीन-जायदाद थी, परन्तु अनपढ़ता के दौर मे फंसे पंडित राजेराम शैक्षिक योग्यता पाने मे असमर्थ रहे, जिसका जिक्र उन्होंने अपनी एक रचना की कुछ पंक्तियों मे इस क़द्र किया है- कि
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*हरियाणे की सन 1995 की एक सच्ची दास्ताँ*
जमाने भोई बड़ी बलवान,
फिर सांग मंचन को छोड़ने के बाद वे दोबारा गृहस्थ जींवन मे व्यस्त हो गये और साथ-साथ अपनी साहित्यिक प्रतिभा को भी आगे बढाते चले गये, क्यूकि इनमे स्मरण शक्ति एवं सांगीत कला की पकड़ इतनी जबरदस्त है कि इनके स्वरचित साहित्य मे से किसी भी समय, कहीं से भी, कुछ भी और किसी तरह की रचना के बारे मुखाश्रित पूछ सकते है और वे उनका जवाब उसी समय बिना किसी बाधा के बड़ी आसानी से देते है। इसी आत्मीय बल एवं ज्ञान और स्मरण शक्ति के कारण ही ये गृहस्थ जीवन मे अपार जिम्मेदारियों के साथ व्यस्त होकर भी एक साधारण मनुष्य की जीवनयापन करते हुए अपने इस साहित्य को उच्चकोटि तक पहुंचाकर उन्होंने अपना साहित्यिक परिचय दिया।
==साहित्य रचना की प्रेरणा एवं प्रभाव:-==
मेरे विचार से प्रेरणा और उत्साह मनुष्य के हाथ में वे हथियार हैं जिनके सहारे मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है और सभी जानते है कि अधिकतर प्रेरणा रूपी ये हथियार बाहर से ही मिलते है। फिर कविराज पंडित राजेराम ने भी इन्ही हथियारों के साक्ष्य कुछ निम्नलिखित पंक्तियों मे इस प्रकार दिए है- कि
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==गुरु महिमा:- ==
गुरु यानी शिक्षक की महिमा अपार है। उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता, क्यूंकि माता-पिता तो हमारे जन्म के साथी है, न की कर्म के साथी | वास्तव मे हमारे सही हिमाती तो सदगुरू ही है जो हमारी ज्ञान ज्योति को प्रज्वलित करते है | वेद, पुराण, उपनिषद, गीता, कवि, सन्त, मुनि आदि सब गुरु की अपार महिमा का बखान करते हैं। इसलिए उपरोक्त सभी ने गुरु की समता को इस प्रकार स्थापित किया है- कि
(सांग:13 ‘सरवर-नीर’ अनु.-3)
'''वसुदेव- ''' मानसिंह बसौदी आला, सिखावण नै छंद आग्या,
गंधर्वो मै रहणे वाला, पंडित लख्मीचंद आग्या,
मांगेराम गुरू काटण नै, विपता के फंद आग्या,
'''देवकी- ''' भिवानी जिला तसील बुवाणी, खास लुहारी गाम पिया,
भारद्वाज ब्राहमण कुल म्यं, जन्में राजेराम पिया,
भगतो का रखवाला आग्या, बणकै सुन्दर श्याम पिया,
(सांग:17 ‘बाबा जगन्नाथ’ अनु.-3)
==पौराणिक सन्दर्भ (शास्त्र-मंथन):-==
बचपन मै बेटी नै चाहना, मात-पिता के प्यार की हो,
(सांग:1 ‘महात्मा बुद्ध’ अनु.-7)
'''प्रकृति-चित्रण:-'''
गोपनी राधे संग आई, बणे थे ललिहारी नंदलाल ।। टेक ।।
(सांग:10 ‘कृष्ण-लीला’ अनु.-18)
** '''हरियाणे के परम्परा **'''
चम्पा बाग जनाने मै, सारी झूलण नै चाली,
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===सवांद योजना:- ===
'''नोट:- ''' सज्जनों! इस सवांद-योजना की 4 कली की रचना मे कविराज प. राजेराम ने अपनी पहली कली मे 15 फूल लगाए है और शेष 3 कलियों मे 12-12 फूल लगाए है। इस सवांद-योजना मे कवि ने उस अवसर को देखते हुए एक बहुत ही अदभुत तर्ज के साथ एक अदभुत रचना के सहज भाव को प्रदर्शित किया है तथा ऐसी सवांदयोजी रचनाये हमको कभी-कभी, कही-कही और शायद बहुत ही कम देखने को मिलती है।
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'''भरथरी- ''' पड़ी फिक्र मै किस ढाला, बूझै भरतार तेरा सै ।। टेक ।।
सांझी तन का तेरे मन का, कौणसा ख्याल जता राणी, करती नखरे नाज आज, के होगी कोए खता राणी, सै फिका चेहरा क्यूं तेरा, मनै बेरा नहीं बता राणी,'''पिंगला- ''' बिछड़या कृष्ण राधे प्रसन्न, कोन्या दर्शन करे बिना, झगड़े-टण्टे चैबीस घण्टे, मै उमण-धुमणी तेरे बिना, बदन फूल सा मुर्झाया, ना छाया दरखत हरे बिना,'''भरथरी- ''' हाथी-घोड़ा सुखपालकी, जुड़वा दुंगा सैल करण नै, खस-खस आलें पंखे निचै, बिछरी शतरंज खेल करण नै, क्यूं पड़ी उदासी सोला राशि, सौ दासी तेरी टहल करण नै,'''पिंगला- ''' कहूं खरी सुण बात मेरी, मै तेरी पतिभ्रता हूर पिया, दिल डाट अलग ना पाट, चाहे सिर काट जै मेरा कसूर पिया, लिए बुझ ब्रहम तै मरी शर्म तै, नहीं धर्म तै दूर पिया,'''भरथरी- ''' दमयंती सी रूपवंती, तू सतवंती सत की नारी, सीता और सुनीता-गीता, जिसी द्रोपद गंधारी, शंकुतला सत की उर्मिला, इसी मनै पिंगला प्यारी, ना कोए बिसरावण आला, मेरै इतबार तेरा सै । 1 ।
'''पिंगला- ''' शाम-सबेरा मिलणा तेरा, लागै कोन्या मेरा जिया, सहम तवाई भरदी बेदर्दी, बज्जर का तेरा हिया, मेरै रूम-रूम मै बसै भरथरी, चीर कलेजा देख पिया,'''भरथरी- ''' ना मांग सिंदुरी, खिण्डी लटूरी, होया डामाडोल शरीर तेरा, धरूं सिर पै ताज, गद्दी पै राज, कर आज तै मै वजीर तेरा, खड़ी बांदी पास, चेहरा उदास, क्यूं मृगानयनी बीर तेरा,'''पिंगला- ''' गंदा फूल भंवर अंधा, जणुं चंदा बिन चकोर पिया, तन की तृष्णा मन की ममता, चित की चिंता चोर पिया, धर्म धुरधंर बंदर आली, तेरे हाथ मै डोर पिया,'''भरथरी- ''' दखणी चीर घाघरा 52 गज का, कलियादार गौरी, कुण्डल कान जंजीरी तुगंल, पायल की झनकार गौरी, छण-कंगण हथफूल-गजरिया, नाथ-गुलिबंद सार गौरी, कित कंठी-मोहनमाला, कित चंदनहार तेरा सै । 2 ।
'''पिंगला- ''' सादा भोला कहै नेक, मनै देख लिया तेरा विक्रम भाई, फिरै लफंगा और गैर न्यूं, कहै शहर के लोग-लुगाई, ख्याल तेरै ना रंज मेरै, फिरै तकता बेटी-बहूँ पराई,'''भरथरी- ''' विक्रम भाई नहीं इसा, तूं किसनै दी भका राणी, झूठ-साच का पनमेशर कै, न्या होगा दरगाह राणी, हाकिम टोरा तेरा डठोरा, जाणुं तेज शुभा राणी,'''पिंगला- ''' सुण करकै ढ़ेठ होई कई हेट, जा घरां सेठ कै आज पिया, करै डठोरे सेठ के छोरे की, बहूँ पै धर ध्यान लिया, फिरै दिवाना कहै जमाना, लुटा खजाना माल दिया,'''भरथरी- ''' खैचांताणी राणी घर मै, सोच-फिक्र मै डोली काया, वो निर्दोष होश कर दिल मै, झुठा चाहवै दोष लगाया, शीलगंगे भीष्म तै कम ना, विक्रम भाई मां जाया, उसकै नहीं पेट काला, गलत विचार तेरा सै । 3 ।
'''पिंगला- ''' ढोल भ्रम के सुण विक्रम के, मारे गम के तीर पिया, बोल सुणुं सिर धुणू बणू के, मै दोया की बीर पिया, कहरी सूं बेधड़कै-लडकै, तड़कै जांगी पीहर पिया,'''भरथरी- ''' बोल जिगर मै दुखै-फूंकै, थुकैगी दुनिया सारी, तेरै हवालै करगी-मरगी, पानमदे मात म्हारी, भाई काढया अन्यायी नै, भाभी आई कलिहारी,'''पिंगला- ''' डाट जिगर नै पनमेशर कै, देणी होगी जान पिया, गंगा माई की सूं खाई, नहीं बोली झुठ तूफान पिया, विक्रम सै बदमाश खास, इतिहास कहैगा जहान पिया,'''भरथरी- ''' लखमीचंद शिष्य मांगेराम का, धाम पाणंछी सै कांशी, इन बाता मै घर का नाश, के थुकै दास तनै दासी, तेरे प्रेम की नर्म डोर, कमजोर घली गल मै फांसी, राजेराम लुहारी वाला, ताबेदार तेरा सै । 4 ।
(सांग:15 ‘पिंगला-भरथरी’ अनु.-10)
(सांग:16 ‘गोपीचंद-भरथरी’ अनु.-24)
==बहरे-तबील रचनाएँ:- ==
सुणी आकाशवाणी, मेरी मौत बखाणी, ये सुणकै कहाणी, मेरा दुखी ब्रह्म,
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==शब्दावली एवं भाषा ज्ञान:- ==
पंडित राजेराम एक निरक्षर के समान है और उनकी प्रचलित भाषा राष्ट्रीय हिन्दी व हरियाणवी सामान्य लोक-भाषा एव खड़ी बोली ही रही है, फिर भी उन्होंने अन्य भाषओं और शब्दों का श्रवण पूरी लगन के साथ किया है | अतः उनके काव्य मे अन्य लोक-प्रचलित भाषायी शब्दों का बाहुल्य मिलता है | पंडित राजेराम को अपनी बोली एवं भाषा के साथ-साथ अन्य भाषाओँ के साथ-साथ, जैसे- उर्दू, अरबी-फारसी, अंग्रेजी आदि से कितना प्यार था और उसमे कितनी महारत हासिल की हुई है, इस साक्ष्य के लिए “चापसिंह-सोमवती” की निम्नलिखित बहरे-तबील रचना पर एक नजर डालिए-
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(सांग:13 ‘सरवर-नीर’ अनु.-13)
==छंद योजना :- ==
'''1 दोहा-'''
गोपी जाओं ब्रज मै, बोले कृष्ण मुरार।
(सांग:11 ‘कृष्ण-लीला’ अनु.-18)
'''2 काफिया-'''
काढ दिया बेटा घर तै, झुठा सै मोहजाल तेरा,
हो बदनामी इसा काम, करदे कोन्या भठियारी,
(सांग:13 ‘सरवर-नीर’ अनु.-13)
'''3 चमोला- '''
दोहा- सोमवती के साथ मै, देख्या जब पठान।
(सांग:14 ‘चापसिंह-सोमवती’ अनु.-28)
'''4 सवैया- '''
पाछै खाणा पहले गंगाजल से, अस्नान करूंगी मै,
(सांग:14 ‘चापसिंह-सोमवती’ अनु.-18)
'''5 गजल योग्य पंक्तियाँ- '''
निगाह पिछाणी शरीफ-चोर की, मै सू पतंग नरम डोर की,
घा सै तन मै मारी गोली, मनै फूंक बदन का चाम लिया।।
(सांग:6 ‘सारंगापरी’ अनु.-29)
'''6 अलंकृत पंक्तियाँ-'''
कर्मा करके जोग भिड़य़ा सै, के आगै अधर्म आण अड़या सै,
(सांग:16 ‘गोपीचंद-भरथरी’ अनु.-7)
'''श्रृंगार-रस:-'''
के सुन्दरी तेरा नाम? कितै आई नहीं बताई? कौण नगर घर-गाम? ।। टेक ।।
==दृष्टिकोण:- एक नजर में-==
'''1 संगीताचार्य दृष्टिकोण-'''
सभी राग चालकै गा दूंगी, राजा के दरबार मै,
(सांग:9 ‘नल-दमयंती’ अनु.-5)
'''2 भौगोलिक/खगोलीय दृष्टिकोण-'''
धुर की सैर कराऊं, बैठकै चालै तो म्हारे विमान मै,
(सांग:6 ‘सारंगापरी’ अनु.-32)
'''3 नारी दृष्टिकोण-'''
होए बीर कै असूर-देवता, और मनुष देहधारी,
(सांग:6 ‘सारंगापरी’ अनु.-16)
'''4 आध्यात्मिक दृष्टिकोण- '''
तप मेरा शरीर, तप मेरी बुद्धि, तप से अन्न भोग किया करूं,
खास लुहारी गाम सै, मेरा ठोड़-ठिकाणा माई ।।
(सांग:6 ‘सारंगापरी’ अनु.-27)
'''5 प्रमाणिक दृष्टिकोण- '''
जवाब:- राजा शुद्धोधन का छोटी रानी गौतमी से ।
चम्बल नदी कै तीर मिले थे, मां नै लिए पिछाण ।।
(सांग:5 ‘कवर निहालदे-नर सुल्तान’ अनु.-4)
'''6 धर्म एवं नीति द्रष्टिकोण-'''
पहली माता जन्म देण की, दूजी सांस बता राखी,
(सांग:3 ‘चमन ऋषि-सुकन्या’ अनु.-31)
==गंगा महिमा:- ==
पवन पवित्र बहता पाणी, आठो याम रहै चलता,
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