"गत्ते की गांठ / राहुल कुमार 'देवव्रत'" के अवतरणों में अंतर
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− | + | कि ज्यों खपरैल से गिरती रहती है रोशनी | |
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+ | एक मैं ही हतभागी तो नहीं | ||
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+ | अक्षरों की पिटती लकीर के साक्षी हैं .... | ||
+ | ये दरख्त , हवा , पानी , धूल , किरणें , रोशनी | ||
+ | बताया मुझे | ||
+ | कि तुम्हें कहीं जाना तो था ही नहीं | ||
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+ | सुनो! | ||
+ | मुझे वक्त की बरबाद खेती समेटनी है | ||
+ | कि हाट अब अपने अंतिम पड़ाव पर | ||
+ | करवट लेता चाहता है | ||
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+ | मेरी नज़्म! | ||
+ | मैं अब अपने घर लौटना चाहता हूं | ||
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13:01, 3 जुलाई 2018 के समय का अवतरण
मेरी देह के अवयव एक से नहीं
इन दिनों...
बोध के पहाड़ों का ठोस ठहराव
ढ़हकर बह जाना चाहता है
कतरा-कतरा टूटकर
मिल जाना चाहता है नदी की कलकल में
किंतु तलछट की काई उपटकर
पानी के साथ बह रही है ...इन दिनों
रोज रात मेरे पैताने बैठ
तुम जो मुझे यूं घूरते रहते हो.....
क्या मेरी जिहन से तत्व चुराने आए हो ?
आत्मा का रंग इन दिनों नीला पड़ा है
ख्वाब में तना शामियाना
छानकर गिराता रहता है किरणों का ढ़ेर
कि ज्यों खपरैल से गिरती रहती है रोशनी
कहा था....
कि पूरे सौरमंडल की यात्रा करनी थी तुम्हें मेरे साथ
एक-एक चीज़ छूकर देखनी थी ...खुद से
एक मैं ही हतभागी तो नहीं
अक्षरों की पिटती लकीर के साक्षी हैं ....
ये दरख्त , हवा , पानी , धूल , किरणें , रोशनी
बताया मुझे
कि तुम्हें कहीं जाना तो था ही नहीं
सुनो!
मुझे वक्त की बरबाद खेती समेटनी है
कि हाट अब अपने अंतिम पड़ाव पर
करवट लेता चाहता है
मेरी नज़्म!
मैं अब अपने घर लौटना चाहता हूं