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बहार आई / गोपालदास "नीरज"

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|रचनाकार=गोपालदास "नीरज"
}}
<poem>
तुम आए कण-कण पर बहार आई
तुम गए, गई झर मन की कली-कली।
तुम आए कणबोले पतझर में कोयल बोली,बन गई पिघल गुँजार भ्रमर-कण पर बहार आई<br>टोली,तुम चले चल उठी वायु रूप-वन कीझुक झूम-झूमकर डाल-डाल डोली,मायावी घूँघट उठते ही क्षण मेंरुक गया समय, पिघली दुख की बदली।तुम गए, गई झर मन की कली-कली।<br><br>कली॥
तुम बोले पतझर रेशमी रजत मुस्कानों में कोयल बोली,<br>रँगकर।बन गई पिघल गुँजार भ्रमर-टोलीतारे बनकर छा गए अश्रु तम पर,<br>तुम चले चल उठी वायु रूपफँस उरझ उनींदे कुन्तुल-वन की<br>झुक झूम-झूमकर डाल-डाल डोलीजालों में,<br>मायावी घूँघट उठते उतरा धरती पर ही क्षण में<br>राकेन्दु मुखर,रुक गया समयबन गई अमावस पूनों सोने की, पिघली दुख की बदली।<br>चाँदी से चमक उठे पथ गली-गली।तुम गए, गई झर मन की कली-कली॥<br><br>
रेशमी रजत मुस्कानों में रँगकर।<br>तुमने निज नीलांचल जब फैलाया,तारे बनकर छा गए अश्रु तम परदोपहरी मेरी बनी तरल छाया,<br>फँस उरझ उनींदे कुन्तुल-जालों मेंलाजारुण ऊषे झाँकी झुरमुट से,<br>उतरा धरती पर ही राकेन्दु मुखरनिज नयन ओट तुमने जब मुस्काया,<br>बन गई अमावस पूनों सोने कीघुँघरू सी गमक उठी सूनी संध्या,<br>चाँदी से चमक उठे पथ गली-गली।<br>चंचल पायल जब आँगन में मचली।तुम गए, गई झर मन की कली-कली॥<br><br>
तुमने निज नीलांचल जब फैलाया,<br>दोपहरी मेरी बनी तरल छाया,<br>लाजारुण ऊषे झाँकी झुरमुट से,<br>निज नयन ओट तुमने जब मुस्काया,<br>घुँघरू सी गमक उठी सूनी संध्या,<br>चंचल पायल जब आँगन में मचली।<br>तुम गए, गई झर मन की कली-कली॥<br><br> हो चले गए जब से तुम मनभावन!<br>मेरे आँगन में लहराता सावन,<br>हर समय बरसती बदली सी आँखें,<br>जुगनू सी इच्छाएँ बुझतीं उन्मन,<br>बिखरे हैं बूँदों से सपने सारे,<br>गिरती आशा के नीड़ों पर बिजली।<br>तुम गए गई झर मन की कली-कली॥<br/poem>