"अतिचार / महेन्द्र भटनागर" के अवतरणों में अंतर
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− | + | वर्षों-वर्षों का होता घनीभूत <br> | |
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− | + | आवेष्टित करते विद्युत-प्रवाह-युक्त तार<br> | |
− | + | तब बन जाते हैं<br> | |
− | + | निर्जीव अचानक! <br> | |
− | + | लुप्त हो जाती हैं सीमाएँ, <br> | |
− | + | छलाँग भर-भर फाँद जाते हैं<br> | |
− | + | स्थिर पैर, <br> | |
− | + | डगमगाते काँपते हुए <br> | |
− | + | स्थिर पैर! <br> | |
+ | भंग हो जाती है<br> | ||
+ | शुद्व उपासना<br> | ||
+ | कठिन सिद्व साधना! <br> | ||
+ | धर्म-विहित कर्म<br> | ||
+ | खोखले हो जाते हैं, <br> | ||
+ | तथाकथित सत्य प्रतिज्ञाएँ<br> | ||
+ | झुठलाती हैं।<br> | ||
+ | बेमानी हो जाते हैं<br> | ||
+ | वचन-वायदे! <br> | ||
+ | और _<br> | ||
+ | प्यार बन जाता है<br> | ||
+ | निपट स्वार्थ का समानार्थक! <br> | ||
+ | अभिप्राय बदल लेती हैं<br> | ||
+ | व्याख्याएँ<br> | ||
+ | पाप-पुण्य की, <br> | ||
+ | छल _<br> | ||
+ | आत्माओं के मिलाप का<br> | ||
+ | नग्न सत्य में / यथार्थ रूप में<br> | ||
+ | उतर आता है! <br> | ||
+ | संयम के लौह-स्तम्भ<br> | ||
+ | टूट ढह जाते हैं, <br> | ||
+ | विवेक के शहतीर स्थान-च्युत हो<br> | ||
+ | तिनके की तरह<br> | ||
+ | डूब बह जाते हैं।<br> | ||
+ | जब भूकम्प वासना का<br> | ||
+ | 'तीव्रानुराग' का<br> | ||
+ | आमूल थरथरा देता है शरीर को, <br> | ||
+ | हिल जाती हैं मन की<br> | ||
+ | हर पुख्ता-पुख्ता चूल! <br> | ||
+ | आदमी<br> | ||
+ | अपने अतीत को, वर्तमान को, भविष्य को<br> | ||
+ | जाता है भूल! |
22:03, 21 जुलाई 2008 के समय का अवतरण
अर्थहीन हो जाता है
सहसा
चिर-संबंधें का विश्वास _
नहीं, जन्म-जन्मान्तर का विश्वास!
अरे, क्षण-भर में
मिट जाता है
वर्षों-वर्षों का होता घनीभूत
अपनेपन का अहसास!
ताश के पत्तों जैसा
बाँध टूटता है जब
मर्यादा का,
स्वनिर्मित सीमाओं को
आवेष्टित करते विद्युत-प्रवाह-युक्त तार
तब बन जाते हैं
निर्जीव अचानक!
लुप्त हो जाती हैं सीमाएँ,
छलाँग भर-भर फाँद जाते हैं
स्थिर पैर,
डगमगाते काँपते हुए
स्थिर पैर!
भंग हो जाती है
शुद्व उपासना
कठिन सिद्व साधना!
धर्म-विहित कर्म
खोखले हो जाते हैं,
तथाकथित सत्य प्रतिज्ञाएँ
झुठलाती हैं।
बेमानी हो जाते हैं
वचन-वायदे!
और _
प्यार बन जाता है
निपट स्वार्थ का समानार्थक!
अभिप्राय बदल लेती हैं
व्याख्याएँ
पाप-पुण्य की,
छल _
आत्माओं के मिलाप का
नग्न सत्य में / यथार्थ रूप में
उतर आता है!
संयम के लौह-स्तम्भ
टूट ढह जाते हैं,
विवेक के शहतीर स्थान-च्युत हो
तिनके की तरह
डूब बह जाते हैं।
जब भूकम्प वासना का
'तीव्रानुराग' का
आमूल थरथरा देता है शरीर को,
हिल जाती हैं मन की
हर पुख्ता-पुख्ता चूल!
आदमी
अपने अतीत को, वर्तमान को, भविष्य को
जाता है भूल!